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________________ जैनविद्या 25 अवसर ही नहीं मिलता। इस तरह सारा काता-पींदा कपास हो जाता है, व्यर्थ हो जाता है और दुर्गति की परम्परा बढ़ जाती है। इससे जाना जा सकता है कि समाधिमरण की जीवन में कितनी महत्ता है। तप्तस्य तपसश्चापि पालितस्य व्रतस्य च। पठितस्य श्रुतस्यापि फलं मृत्युः समाधिना।।16।। - मृत्यु महोत्सव अर्थात् तपे हुए तप, पालन किए हुए व्रत और पढ़े हुए शास्त्रों का फल समाधिमरण में ही है, बिना समाधिमरण के ये वृथा हैं। ___ यहाँ शंका नहीं करनी चाहिए कि - ‘जब समाधिमरण से ही सब कुछ होता है तो क्यों जप-तप-चारित्र की आफत मोल ली जाए, मरणसमय समाधि ग्रहण कर लेंगे।' परन्तु ऐसा विचारना ठीक नहीं क्योंकि काय तथा कषाय के कृश करने के लिए जीवनभर तप और चारित्र का अभ्यास इसीलिए किया जाता है कि अन्त समय में भी परिणाम निर्मल रहें, जिससे समाधि ग्रहण करने में आसानी रहे। संभवतः इसीलिए कुन्दकुन्द आचार्य ने सल्लेखना को शिक्षाव्रत में स्थान देने की दूरदर्शिता की है। समाधिमरण और तप-चारित्र में परस्पर कार्यकारणरूपता है। जब उपसर्ग और अकाल मृत्यु का अवसर उपस्थित हो यथा - सिंहादि क्रूर जन्तुओं का अचानक आक्रमण हो जाना, सोते हुए घर में भयंकर अग्नि लग जाना, महावन में रास्ता भूल जाना, बीच समुद्र में तूफान से नाव डूबना, विषधर सर्प का काट खाना आदि में पूर्वकृत तप-चारित्र का अभ्यास ही काम आता है। सारी जिन्दगी चारित्र में बितानेवाला अगर अन्त समय में असावधान होकर अपने आत्मधर्म से विमुख हो जाए तो उसका दोष तप-चारित्र पर नहीं है, यह तो उसके पुरुषार्थ की हीनता और अभ्यास की कमी है या बुद्धि विकार है, इसे ही तो ‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि' कहते हैं। सल्लेखना का महत्त्व सल्लेखना से अनन्त संसारी की कारणभूत कषायों का आवेग उपशान्त अथवा क्षीण हो जाता है तथा जन्म-मरण का चक्र बहुत ही कम हो जाता है। आचार्य शिवार्य सल्लेखना का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि 'जो जीव एक ही पर्याय में समाधिपूर्वक मरण करता है वह सात-आठ पर्याय से अधिक संसार में परिभ्रमण नहीं करता।'' उन्होंने सल्लेखना का महत्त्व बताते हुए यहाँ
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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