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________________ जैनविद्या 25 अप्रेल 2011-2012 शिवार्यकृत भगवती आराधना में चित्रित 'समाहित चित्त' का स्वरूप एवं उपयोग : सल्लेखना के परिप्रेक्ष्य में - डॉ. पी. सी. जैन मंगलाचरण सकल विभाव अभावकर, करूँ आत्मकल्याण। परमानन्द-सुबोधमय, नमूं सिद्ध भगवान।।1।। आत्मसिद्धि के मार्ग का, जिसका सुभग विधान। उस समाधियुक्त मरण का, करूँ पत्र बखान।।2।। 'सल्लेखना' शब्द जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है सम्यक्कायकषायलेखना' - सम्यक् प्रकार से काय और कषाय दोनों को कृश करना सल्लेखना है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार उपायरहित उपसर्ग, दुष्काल, बुढ़ापा तथा असाध्य रोग वगैरह के आने पर रत्नत्रय स्वरूप धर्म का उत्तम रीति से पालन करने के लिए शरीर छोड़ना सल्लेखना है। जिस क्रिया में बाहरी शरीर और भीतरी रागादि कषायों का, उनके निमित्त कारणों को कम करते हुए हर्षपूर्वक बिना किसी दबाव के स्व-इच्छा से कृश किया जाता है उस क्रिया का नाम सल्लेखना है। इसी को समाधिमरण भी कहा जाता है। यह यावज्जीवन पालित एवं आचरित समस्त व्रतों तथा चारित्र की संरक्षिका है। श्रावक के द्वारा द्वादश
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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