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________________ जैनविद्या 25 (7-8) ध्यान और लेश्या - साधक आर्त और रौद्र ध्यान से मुक्त । होकर धर्मध्यान और शुक्लध्यान की ओर आगे बढ़ता है। ये शुभ ध्यान उसे इन्द्रिय और कषाय विजयी बनाते हैं। (9) फल - धर्मध्यान में आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय पर चिन्तन करने से तथा अनुप्रेक्षाओं पर भावना भाने से वीतरागता बढ़ती है (1682-1867)। शुक्ल ध्यान में मन और गहराई से एकत्रित होने लगता है और सभी प्रकार की क्रियाओं से वह मुक्त हो जाता है (16681899)। गाथा 1703 में धर्मध्यान का वर्णन हुआ है। (10) विजहण - सल्लेखनापूर्वक मरण होने के बाद शरीर को जलाने की क्रिया को विजहण कहते हैं। साधक द्वारा की गई इस आध्यात्मिक यात्रा से उसकी आराधना सफल हो सकती है। यह आराधना तीन श्रेणियों से गुजरती है - (1) उत्कृष्ट - जिससे सिद्धत्व प्राप्त हो जाता है, (2) मध्यम - जिससे वह अनुत्तर विमान में पैदा होता है। और (3) जघन्य - जिससे साधक सौधर्मेन्द्र और अन्य स्वर्गों में जन्म ग्रहण करता है। यदि साधक किसी कारणवश विचलित होता है तो वह फिर विराधकों की श्रेणी में आ जाता है (1865-1866)। इसे 'असमाधिमरण' कहा जाता है जो बालमरण के समान होता है (1956-58)। साधक का यह कठिन समय अल्पकालीन रहता है, तीन दिन, इक्कीस दिन या एक माह। निर्यापकाचार्य इस काल में साधक को अडिग रहने की प्रेरणा देता है। अन्य साधु-श्रावकगण भी उसे संबोधन करते रहते हैं। साधक भी इन्द्रियसंयमी होने का प्रयत्न करता है, ध्यान-साधना करता है, त्रिशल्यों को दूर करता है, वह जिन, अर्हत् और निजात्मा पर विचार करता है। इससे वह सिद्धत्व प्राप्त कर लेता है। शिलालेखों में श्रितमुनि, प्रभाचंद्र, वूचण, मारसिंह, माचिकब्बे आदि साधक-साधिकाओं के उल्लेख मिलते हैं। मरणोत्तर कार्य (विजहण) साधक के समाधिमरण हो जाने के बाद उसके शरीर को जलाने की विधि को 'विजहण' कहा जाता है और जहाँ जलाते हैं उसे 'निसीधिका' कहा जाता है। इस सम्बन्ध में दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्पराएँ लगभग समान हैं। वैयावृत्य करनेवाले ही उनका यह अन्तिम कार्य करते हैं (1961-67)। इसके लिए निसीधिका
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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