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________________ जैनविद्या 25 41 भगवती आराधना के रचयिता आचार्य शिवार्य वा शिवकोटि ने अपने इस ग्रन्थ में आर्य जिननन्दिगणी, सर्वगुप्तगणी, आर्य मित्रनन्दि का अपने विद्या वा शिक्षा गुरु के रूप में उल्लेख किया है कि उनके पादमूल में बैठकर सम्मसूत्र और उसके सूत्रार्थ की सम्यक् जानकारी प्राप्त की गई और आचार्यों द्वारा निबद्ध हुई आराधनाओं का उपयोग कर यह आराधना स्वशक्ति के अनुसार रची गई है। साथ ही अपने को पाणिदलभोजी (करपात्र आहारी) लिखकर दिगम्बर आचार्य के रूप में सूचित किया है - अज्ज जिणणंदि गणि, सव्वगुत्तगणि अज्जमित्तणंदीणं। अवगमिय पादमूले सम्म सुत्तं च अत्थं च।।2174।। पुव्वायरियणिबद्धा उवजीवित्ता इमा ससत्तीए। आराहणा सिवज्जेण पाणिदल-भोइणा रइदा।।2175।। जैसे आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के अन्त में अपनी महान विनीत भावना व्यक्त की है - अक्षर-मात्र-पद-स्वर-हीनं, व्यंजन-संधि-विवर्जित-रेफम्। साधुभिरत्र मम क्षमितव्यं, को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे।। अर्थात् इस शास्त्र में यदि मुझसे अक्षर, मात्रा, पद या स्वर की भूल हुई हो; व्यंजन संधि या रेफ के बिना कुछ लिखा गया हो तो सज्जन पुरुष मुझे क्षमा करें, क्योंकि शास्त्ररूपी समुद्र में कौन नहीं गोते खा जाता है? _इसी भाँति आचार्य शिवार्य ने ग्रंथ के अन्त में विनम्रता प्रकट की है - छदुमत्थदाए एत्थ दु जं, बद्ध होज पवयण-विरुद्ध। सोधेतु सुगीदत्था पवयणवच्छ लदाए दु ।।2176।। आराहणा भगवदी एवं भत्तीए, वण्णिदा संती। संघस्स सिवजस्स य समाहिवरमुत्तमं देउ।।2177।। अर्थात् छद्मस्थता (ज्ञान की अपूर्णता) के कारण मुझसे कहीं कुछ प्रवचन (आगम) के विरुद्ध निबद्ध हो गया हो तो उसे सुगीतार्थ (आगम-ज्ञान में निपुण) साधु प्रवचन-वत्सलता की दृष्टि से शुद्ध कर लेवे और भक्ति से वर्णित यह ‘भगवती आराधना' मुनि संघ को तथा मुझ (शिवार्य) को उत्तम समाधि प्रदान करे अर्थात् इसके प्रसाद से मेरा तथा संघस्थ सभी का समाधिपूर्वक मरण होवे। चारित्र आराधना पर विशेष बल देते हुए आचार्य शिवार्य का परमार्थ वचन है - ज्ञान-दर्शन का सार तो शुद्ध चारित्र्य है। वास्तव में चारित्र की
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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