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जैनविद्या 25
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की पात्रता ग्रहण करता है। इस प्रकार तत्त्वज्ञान और तत्त्वअभ्यास के साथ-साथ वैराग्य भावनाओं को भाना साधक का प्राथमिक कर्तव्य है, अन्यथा निश्चयाभासी होने की स्थिति प्रकट हो जाती है। निश्चयाभास की प्रबलता से अशुभ में प्रवृत्ति होने पर कुगति में गमन होता है। परिणामों के अनुसार फल होता है। अतः सुफल हेतु द्वादश भावनाओं का चिन्तवन करना साधक को इष्ट है।
अद्धवमसरणमेगत्तमण्ण-संसार-लोयमसुइत्तं।
आसवसंवर-णिज्जर-धम्म बोधिं च चिंतिज्ज।।1724।।
अर्थ - 1. अध्रुव-अनित्य, 2. अशरण, 3. एकत्व, 4. अन्यत्व, 5. संसार, 6. लोक, 7. अशुचित्व, 8. आस्रव, 9. संवर, 10. निर्जरा, 11. धर्म और 12. बोधि, ये द्वादश भावना बारम्बार चिन्तवन करें।
भावार्थ - ये द्वादश भावना वैराग्य की माता है। तीर्थंकर देवनिकरि चितवन करी हुई समस्त जीवन के हित करनेवाली, दुखित जीवनि कू शरणभूत, आनंद करनेवाली, परमार्थ मार्ग कू दिखावनेवाली, तत्वनि का निश्चय करावनेवाली, सम्यक्त्व उपार्जन करावनेवाली, अशुभध्यान कू नष्ट करनेवाली, कल्याण के अर्थीनि कू नित्य ही चिंतवन करना श्रेष्ठ है।
धर्म के साधनों में अरहंतादिक के स्तवन, भक्ति आदि के साथ द्वादश भावनाओं का निरंतर चितवन करना चाहिए। 1. अध्रुव-अनित्य भावना
देव, मनुष्य पर्याय फेन के झाग-जैसी क्षणमात्र में नष्ट हो जाती है। ऋद्धिसम्पदा आदि स्वप्न-जैसी है। इन्द्रियजनित सुख बिजलीवत चंचल हैं। स्थान, गृह, विषय-भोग आदि का संकल्प मत करो। सर्व इन्द्र-चक्रवर्तीपना विनाशीक जानकर ज्ञान-दर्शन स्वरूप में आपा धारण करो। मित्र, स्वामी, स्त्री, पुत्रादिक परिवार आदि के सम्बन्ध अनित्य हैं। वृक्ष की छाया को प्राप्त समूह है जो अपने-अपने मार्ग में चले जाते हैं। सूर्यास्त के समय अनेक पक्षी एक वृक्ष पर आ मिलते हैं और प्रातःकाल बिछुड़ जाते हैं, ऐसा ही कुटुम्बीजनों का संयोग है जो अनेक गतियों से
आये हैं और त्रस-स्थावरादि अनेक योनिस्थान में चले जाएँगे। ऐश्वर्य, आज्ञा, धन तथा निरोगपना नष्ट हो जाता है। जीव की इन्द्रियों की सामग्री संध्याकाल की लालिमा समान अनित्य है। मनुष्यों का यौवन स्थिर नहीं है। नदी के जल-जैसे गया हुआ यौवन वापिस नहीं आता। जीव-लोक में आयु निरन्तर क्षीण होती है, बुढ़ापे