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जैनविद्या 25
के चार मूलद्वारों का वर्णन है 1. परिकर्मविधि, 2. परगणसंक्रमण, 3. ममत्वउच्छेद और 4. समाधि । इन चारों द्वारों में अनुक्रम से 15, 10, 9 और 9 प्रतिद्वार हैं। यहाँ हम संवेगरत्नशाला पर समीक्षात्मक दृष्टि से 'भगवदी आराधना' के परिप्रेक्ष्य में विशेष विचार करेंगे।
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'भगवती आराधना' में सल्लेखना के लिए 'आराधना' शब्द का प्रयोग हुआ है। आराधना का तात्पर्य है जिनभक्ति, रत्नत्रयपालन, तप, वीतरागता, इन्द्रियसंयमन आदि सद्गुणों में व्यस्त रहना। इन व्रतों के साथ हुए मरण को ‘आराधना मरण' कहा जाता है। स्तुति के रूप में इसे 'भगवती आराधना' कहते हैं। भगवती सूत्र में आराधना तीन प्रकार की मिलती है - ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना और चारित्राराधना। साधक आराधना की पूजा भी करता है इसलिए लोहाचार्य द्वारा 84,000 गाथाओं में लिखी आराधना को शिवार्य ने मूलाराधना में 2500 गाथाओं में संक्षिप्त किया। बाद में और भी संक्षिप्तीकरण होता रहा । ऐसे लगभग 30 आराधना ग्रन्थ मिलते हैं। शिवार्य की 'भगवती आराधना' ( 2166-2170 गाथा), जिनचन्द्रसूरि की 'आराधना माला या संवेगरंगशाला' ( 10,054 गाथाएँ), आराधनापंचक उनमें मुख्य हैं। वीरभद्रसूरि की 'आराधना पताका' ( 990 गाथाएँ) मध्यम श्रेणी की है। शेष बहुत छोटी-छोटी हैं।
आराधना पर टीकाएँ लिखी जाना भी पुण्य का कार्य माना गया है ( सवयधम्म संघ गाथा, 193 ) । ' भगवती आराधना' पर शायद इसीलिए लगभग आधा दर्जन टीकाएँ लिखी गई हैं। इनमें 'आराधना' तीन प्रकार की वर्णित हैं। 1. उत्कृष्ट जो केवलि द्वारा प्राप्त की जाती है, 2. मध्यम जो शुक्ल - पद्म लेश्या का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, और 3. जघन्य जो परिग्रही साधकों द्वारा की जाती है।
शिलालेखों में आराधनापूर्वक
मरण के उल्लेख मिलते हैं। श्रवणबेलगोल में कटवप्र पर आचार्य प्रभाचन्द्र ने आराधना - समाधिमरण ग्रहण किया। बाद में 700 ऋषियों के 'आराधना मरण' का उल्लेख मिलता है। 7वीं सदी में कनकसेन और बलदेव तथा गुणदेव ने समाधिमरण लिया। पुष्पनन्दि, भारसिंह, शशिमति, नागियक्का, चैचेगौडी के भी उल्लेख आये हैं।
भगवती आराधना का विषय परिचय
भगवती आराधना का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है - 'सल्लेखना' और 'मरण के प्रकार' । यद्यपि मरण के 17 भेद हैं पर ग्रन्थकार ने इसमें पाँच प्रकार के ही