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________________ निशीथ आदि ग्रंथों में मुनि आचार के साथ ही समाधिमरण की साधना का वर्णन हुआ है। नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि आदि में भी उस पर चिन्तन किया गया है। उत्तराध्ययन के पाँचवें अध्ययन में इसकी विस्तृत चर्चा है । " 'सल्लेखना' शब्द जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है ‘सम्यक्कायकषायलेखना' अर्थात् सम्यक् प्रकार से काय और कषाय दोनों को कृश करना सल्लेखना है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार उपायरहित उपसर्ग, दुष्काल, बुढ़ापा तथा असाध्य रोग वगैरह के आने पर रत्नत्रय - स्वरूप धर्म का उत्तम रीति से पालन करने के लिए शरीर छोड़ना सल्लेखना है । जिस क्रिया में बाहरी शरीर और भीतरी रागादि कषायों का, उनके निमित्त कारणों को कम करते हुए हर्षपूर्वक बिना किसी दबाव के स्व-इच्छा से कृश किया जाता है, उस क्रिया का नाम सल्लेखना है । " 66 - - " सल्लेखना से अनन्त संसारी की कारणभूत कषायों का आवेग उपशान्त अथवा क्षीण हो जाता है तथा जन्म-मरण का चक्र बहुत ही कम हो जाता है। आचार्य शिवार्य सल्लेखना का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहते हैं 'जो जीव एक ही पर्याय में समाधिपूर्वक मरण करता है वह सात-आठ पर्याय से अधिक संसार में परिभ्रमण नहीं करता।' उन्होंने सल्लेखना का महत्त्व बताते हुए यहाँ तक लिखा है कि 'जो व्यक्ति अत्यन्त भक्ति के साथ सल्लेखनाधारक (क्षपक) के दर्शन - वन्दन - सेवादि के लिए निकट जाता है वह व्यक्ति भी देवगति के सुखों को भोगकर अन्त में उत्तम स्थान ( निर्वाण ) को प्राप्त करता है।" “सल्लेखना में देह और कषाय दोनों का कृश होना आवश्यक है। केवल शरीर का कृश होना सार्थक नहीं है, निष्फल है। व्रतादि इसमें परम सहायक हैं। व्रतों से दोनों की साधना संभव है। समाधिपूर्वक मरण ही कल्याणकारी है। देह - विसर्जन में हर्षित हो और किसी प्रकार की आकांक्षा न करे। " " जैन-धर्म-दर्शन में समाधिपूर्वक मरण सर्वोपरि विशेषता है। मुनि हो या श्रावक, सबका लक्ष्य समाधिपूर्वक मरण की ओर रहता है। मुनि और उत्कृष्ट श्रावक अपनी नित्य भक्ति में समाधिमरणार्थ भावना भाते हैं । इस भक्ति भावना में मानवीय जीवन का इहलोक और परलोक अभ्युदय एवं निःश्रेयस निर्धारित है। आचार्य शिवार्य के 'भगवती आराधना' ग्रंथ में समाधिपूर्वक मरण की पर्याप्त शिक्षा - सामग्री व व्यवस्था प्राप्त होती है। मुनि आचारपरक यह ग्रंथ मरण के भेदों-प्रभेदों से पूरित है । " (x)
SR No.524770
Book TitleJain Vidya 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size6 MB
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