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________________ जैनविद्या 24 प्रमाण का लक्षण स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । प्रभाचन्द्र ने स्व-अपूर्व के अर्थ के व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण माना है। अर्थात् जो अपने और अपूर्व अर्थ के निश्चयात्मक विषय को महत्व देता है उसे प्रमाण कहते हैं। प्रमाण के इस लक्षण में वस्तु की प्रामाणिकता है किसी अन्य से विशेष अर्थ का ज्ञान है। अर्थात् निराकरण करके समझाने की प्रवृत्ति है, अर्थ से वस्तु का प्रयोजन है। व्यवसायात्मक से विशद् ज्ञान का बोध होता है और ज्ञान से वस्तु की विशदता का परिचय भी प्राप्त होता है। __माणिक्यनंदि ने निम्न परिभाषा दी है - स्वपूर्वार्थ व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।' इसी सूत्र को प्रभाचन्द्र ने अपने प्रमाण के विषय का आधार बनाया। प्रमाणनयतत्वालोक में निम्न परिभाषा दी गयी है - स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । अर्थात् स्व और पर के व्यवसायी ज्ञान का नाम प्रमाण है। इस परिभाषा में अपूर्व शब्द का प्रयोग नहीं है। उसके स्थान पर' शब्द का प्रयोग है। जिससे इसका अर्थ 'स्व' अर्थात् अपने और ‘पर' अर्थात् अन्य वस्तु के निश्चयात्मक ज्ञान को प्रतिपादित किया गया, क्योंकि वस्तु का ज्ञान दो प्रकार से होता है - स्वतः और परतः, मुख्य और गौण, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, सामान्य-विशेष, भेद-अभेद आदि। ___ स्वार्थ व्यवसायत्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।" . इस सूत्र में 'स्व' और 'अर्थ' के व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहा गया है। प्रमाणमीमांसाकार ने उक्त परिभाषाओं की अपेक्षा निम्न परिभाषा दी है - सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् ।। 'सम्यक् अर्थ' का निर्णय जिससे होता है वह प्रमाण कहलाता है। उक्त सैद्धान्तिक परिभाषाएँ सभी दृष्टियों से 'अर्थ' के निर्णय को प्रस्तुत करनेवाली हैं। आचार्य प्रभाचन्द्र की परिभाषा में प्रमाण के विषय साथ-साथ 'स्व, अपूर्व, अर्थ, व्यवसायात्मक और ज्ञान' इन पाँचों का विस्तृत विवेचन करते हुए निश्चित प्रयोजन को सिद्ध किया है। 'स्व' और 'अर्थ' से वस्तु का प्रयोजन और उसकी सार्थकता पर प्रकाश डाला गया है। ‘अर्थ’ से निश्चित भाव और 'व्यवसायात्मक' विशेषण से बौद्ध
SR No.524769
Book TitleJain Vidya 24
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages122
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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