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________________ 41 जैनविद्या 24 प्रतिबिम्ब विचार तम और छाया द्रव्यत्व आदि। अपने अगाध पांडित्य की उपेक्षा करते हुए आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपनी लघुता व्यक्त करते हुए लिखा - बोधो मे न तथा विधोऽस्ति न सरस्वत्याप्रदत्तोवरः। साहायञ्च न कस्यचिद्वचनतोऽप्यस्ति प्रबन्धोदये ।। अर्थ - न मुझमें वैसा ज्ञान ही है और न सरस्वती ने ही कोई वर प्रदान किया है। तथा इस ग्रन्थ के निर्माण में किसी से वाचनिक सहायता भी नहीं मिल सकी है। अपनी लघुता व्यक्त करना निर्मल परिणति के जैनाचार्यों की विशिष्ट सहज विशेषता है। आचार्य प्रभाचन्द्र उसके अपवाद कैसे हो सकते हैं? यहाँ जैन न्याय के प्रसिद्ध मूर्धन्य विद्वान डॉ. महेन्द्रकुमारजी जैन न्यायाचार्य का उल्लेख करना समीचीन होगा जिन्होंने अतिप्रतिकूल परिस्थितियों में अनवरत श्रमसाधना एवं प्रखर बुद्धि से अपनी प्रथम सम्पादित कृति न्यायकुमुदचन्द्र का जनहितार्थ प्रकाशन किया। यह दो भागों में प्रकाशित हुई। प्रथम भाग की 126 पृष्ठों की प्रस्तावना श्री पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री द्वारा लिखी गयी जबकि दूसरे भाग की 63 पृष्ठों की प्रस्तावना स्वयं डॉ. श्री महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य ने लिखी। यह उनके वैदूष्य एवं समर्पित साधना की सूचक है। वस्तुतः आचार्य प्रभाचन्द्र-समान श्री पण्डित महेन्द्रकुमारजी भी नित-स्मरणीय हो गये। 3. शब्दाम्भोज भास्कर - जैनेन्द्र व्याकरण पर आचार्य अभयनन्दि रचित महावृत्ति उपलब्ध है। इसी के आधार पर आचार्य प्रभाचन्द्र ने 'शब्दाम्भोज भास्कर' नामक जैनेन्द्र व्याकरण का महान्यास बनाया है। इसकी रचना श्री जयसिंह देव (राज्य 1056 से) के राज्य में न्यायकुमुदचन्द्र की रचना के बाद की गई है। श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं. 40 (64) में प्रभाचन्द्र के लिए 'शब्दाम्भोज दिवाकरः' विशेषण भी दिया है। इससे सिद्ध होता है प्रभाचन्द्र ही 'शब्दाम्भोज भास्कर' नामक जैनेन्द्र व्याकरण महान्यास के कर्ता हैं। यह न्यास जैनेन्द्र महावृत्ति के बहुत बाद बनाया गया है। ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन (ब्यावर) में इसकी एक अधूरी प्रति प्राप्त हुई, जिसके आधार से इसका परिचय हुआ। इसमें जैनेन्द्र व्याकरण के मात्र तीन अध्याय का ही न्यास है। तृतीय अध्याय के अंत में निम्न श्लोक आया है जिसमें अभयनन्दि को नमस्कार किया है नमः श्री वर्धमानाय महते देवनन्दिने । प्रभाचन्द्राय गुरवै तस्मै चाभयनन्दिने ।।
SR No.524769
Book TitleJain Vidya 24
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages122
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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