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________________ जैनविद्या 24 मार्च 2010 जयतु प्रभेन्दु सूरिः - आचार्य राजकुमार जैन जैन मनीषियों, रचनाकारों, ग्रंथ-लेखकों एवं आचार्यों की यह विशेषता रही है कि आत्मश्लाघा से बचते हुए उन्होंने स्वयं के विषय में अधिक कुछ नहीं लिखा। ग्रंथ की प्रशस्ति के रूप में यदि कुछ लिखा भी तो वह अत्यल्प ही। ऐसी स्थिति में उनके विषय में विशेषतः उनका काल निर्धारण करने में बाधा उत्पन्न होती है, तथापि उन ग्रंथकारों द्वारा किया गया अपने गुरु का स्तवन, गुरु-गुण संकीर्तन एवं वन्दन तथा उनके परवर्ती ग्रंथकारों-रचनाकारों द्वारा किया गया उनका सादर स्मरण अथवा अपने ग्रंथ में उनके (अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के) ग्रंथों के कतिपय अंशों - श्लोकों के उद्धरण आदि साक्ष्यों के आधार पर आचार्यों एवं उनकी कृतियों का निर्णय किया जाता है। यह समस्या उस समय और अधिक गहरी हो जाती है जब एक ही नामधारी एकाधिक विद्वान हमारे समक्ष होते हैं। यदि उनके विषय में स्वतंत्र रूप से अथवा अधिकृत रूप से कोई परिचय प्राप्त नहीं होता है अथवा अल्प या सन्दिग्ध परिचय प्राप्त होता है तो उसके आधार पर उनके व्यक्तित्व, कर्तृत्व एवं काल के निर्धारण की समस्या जटिल हो जाती है। यह प्रवृत्ति सामान्यतः प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल के प्रारंभ तक भारतीय साहित्यिक परम्परा में देखने को मिलती है।
SR No.524769
Book TitleJain Vidya 24
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages122
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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