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जैनविद्या 24
काल-निर्धारण करने में विद्वानों में काफी ऊहापोह और मतभेद रहा, तथापि 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' में धारा-नरेश भोजराज और 'न्यायकुमुदचन्द्र' 'आराधना-सत्कथाप्रबन्ध' एवं 'समाधितन्त्र-टीका' में श्री जयसिंहदेव का स्पष्ट उल्लेख होने से तथा अन्य अन्तः एवं बहिर्साक्ष्यों के परीक्षण के आधार पर डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन, डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य और डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री प्रभृति विद्वानों ने इनका समय 980 ई. से 1065 ई. के मध्य अनुमानित किया है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' और 'न्यायकुमुदचन्द्र' जैसे तर्क और न्याय विषयक ग्रन्थों व 'शब्दाम्भोजभास्कर' और 'शाकटायनन्यास' जैसे व्याकरण-ग्रन्थों के रचयिता तथा ‘पंचास्तिकाय', 'तत्त्वार्थवृत्ति', 'समाधितन्त्र' और 'क्रियाकलाप' जैसे पूर्ववर्ती गूढ़ दार्शनिक, आध्यात्मिक एवं सैद्धान्तिक ग्रन्थों का भाष्य करनेवाले तथा संस्कृत गद्य में कथा-कहानी जैसे ललित विषय पर लेखनी चलानेवाले, शास्त्रार्थ में वादियों को परास्त करनेवाले विवेच्य प्रभाचन्द्र अगाध ज्ञानवाले, विलक्षण प्रतिभासम्पन्न, अद्भुत क्षमता के प्रकाण्ड पण्डित थे।
उक्त पण्डित प्रभाचन्द्र के अतिरिक्त प्रभाचन्द्र नामधारी जिन अन्य विद्वानोंआचार्यों आदि का विवरण हमें मिल सका है, उनका संक्षिप्त परिचय यहाँ दे देना प्रासंगिक होगा। काल-क्रमानुसार उनका विवरण निम्नवत है -
(1) 'जैन शिलालेख संग्रह', प्रथम भाग में संकलित श्रवणबेलगोल के शिलालेख 1 (शक सवत् 522 अर्थात् 600 ई.) में उल्लिखित आचार्य प्रभाचन्द्र जो भद्रबाहु श्रुतकेवलि (लगभग 340 ई. पू.) के शिष्य 'राजा चन्द्रगुप्त' रहे बताये जाते हैं।
(2) वृहद्प्रभाचन्द्र जिन्होंने उमास्वामि के मूल तत्त्वार्थसूत्र' के सूत्रों का संक्षिप्तिकरण करते हुए 10 अध्यायों में शताधिक सूत्रों में 'तत्वार्थसूत्र' की रचना की थी। इस सूत्र-ग्रन्थ में पूज्यपाद और अकलंकदेव आदि के आधार पर यत्रतत्र परिवर्तन-परिवर्द्धन किया गया बताया जाता है। इन वृहद्प्रभाचन्द्र का समय उमास्वामि (40-90 ई.) के उपरान्त ही संभव है।
(3) 'अर्हत्प्रवचन' के कर्ता प्रभाचन्द्र जिन्होंने उपर्युक्त वृहद्प्रभाचन्द्र के 'तत्वार्थसूत्र' के अध्ययनोपरान्त उक्त ग्रन्थ की रचना 5 अध्यायों में 84 सूत्रों में की बताई जाती है। अकलंकदेव (625-675 ई.) द्वारा अपनी 'तत्त्वार्थराजवार्तिक',