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________________ जैनविद्या 24 टीका-गन्थ हैं। 'प्रमेयकमल मार्तण्ड' टीका-ग्रंथ होते हुए भी मौलिक से कम नहीं है। पूर्व पक्ष में आनेवाले दार्शनिकों ने 'प्रमेयकमल मार्तण्ड' के कर्ता का लोहा माना और अपना पक्ष छोड़ स्याद्वाद को स्वीकार किया है। उपसंहार - यद्यपि आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपने जन्म-स्थान के विषय में कुछ नहीं लिखा और न किसी शिलालेख से उनके जन्मस्थान का ज्ञान होता है। किन्तु एक टिप्पणी से विदित होता है कि वे स्थायीरूप से धारा नगरी के निवासी थे। यथा - "स्थेयात् पण्डित पुण्डरीक तरणिः श्रीमान प्रभाचन्द्रमा" इससे विदित होता है कि इनका स्थायी निवास धारानगरी था। ये राजा भोज द्वारा सम्मानित एवं पूज्य थे। इनको पण्डित कहा गया है। इससे इनका गृहस्थ होना सिद्ध होता है क्योंकि दिगम्बर साधु को कोई पण्डित नहीं कहता। इसके अतिरिक्त 'आत्मानुशासन' आदि महान ग्रंथों के कर्ता आचार्य गुणभद्र ने इनकी कृति 'न्यायकुमुदचन्द्र' पर एक श्लोक लिखकर इनको कवि एवं पण्डित कहा है, इससे भी इनका गृहस्थपण्डित होना सिद्ध होता है। इस विषय में एक राय यह भी है कि पण्डित शब्द विद्वान का द्योतक है, अतः इस शब्द मात्र से इनको गृहस्थ पण्डितों की कोटि में नहीं गिना जा सकता । किन्तु टिप्पणकार ने 'स्थेयात्' शब्द का प्रयोग किया है। इससे इनका धारा में स्थिर होना जान पड़ता है। चूंकि दिगम्बर साधु एक स्थान पर अधिक नहीं रहते। तीसरी बात यह भी है इनके विद्या-गुरु जिनसे कि इन्होंने ज्ञान प्राप्त किया है वे धारा नगरी के थे, ऐसा सिद्ध हो चुका है। धारा में आचार्य माणिक्यनन्दि से शिक्षा प्राप्त कर आप आचार्य पद्मनन्दि के नन्दिसंघ बलात्कार गण में दीक्षित हो गए हैं, इसमें विवाद नहीं हो सकता। श्रवणवेलगोला के शिलालेख के अनुसार आप नन्दिसंघ बलात्कार गण के आचार्यों की पट्टावलि के आचार्य हैं। आपके गुरु आचार्य पद्मनन्दि इसी संघ के थे। __ आप द्वारा रची गई टीका-रचना 'प्रमेयकमल मार्तण्ड' जैन-न्याय में मूर्धन्य स्थान रखती है। यह शास्त्री', 'न्यायतीर्थ' एवम् ‘आचार्य' तक की उच्च कक्षाओं के पाठ्यक्रमों के लिए स्वीकृत है। ग्रन्थ में प्रमाण का स्वरूप, उसके भेद - प्रत्यक्ष एवं परोक्ष को तथा इनके आभासों को युक्तिपूर्वक समझाया है। स्मृति, प्रत्यक्ष, तर्क, आगम और अनुमान तथा इनके भेद और प्रतिपक्ष प्रमाण को सयुक्तिक समझाया है। इन पाँचों
SR No.524769
Book TitleJain Vidya 24
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages122
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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