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________________ जैनविद्या 24 109 परन्तु उनका यह कथन भी समीचीन नहीं है, क्योंकि विपर्ययज्ञान में प्रतिभासित होनेवाला अर्थ सर्वथा असत् नहीं होता। यदि सर्वथा असत् अर्थ का भी प्रतिभास होता हो तो आकाश-पुष्प आदि का भी हो, जो कथमपि नहीं होता। तथा यदि देखा जाए तो यह कथन ही कि 'असत् की ख्याति होती है' - पूर्वापरविरोधयुक्त है। असत् भी है और उसकी ख्याति भी होती है - यह कैसी विरुद्ध बात? अतः विपर्ययज्ञान को असत्ख्याति-रूप मानना भी युक्तिसंगत नहीं है। 3. प्रसिद्धार्थख्यातिवाद - ___ सांख्य कहते हैं कि विपर्ययज्ञान प्रसिद्धार्थख्यातिरूप होता है, क्योंकि उसमें प्रतिभासित अर्थ सर्वथा प्रसिद्ध (सत् या विद्यमान) होता है। जैसे - सीप में चाँदी का ज्ञान होने पर वहाँ वस्तुतः ही चाँदी विद्यमान होती है। यद्यपि उत्तर काल में वहाँ चाँदीरूप अर्थ उपलब्ध नहीं होता है, तथापि जिस समय उसका प्रतिभास होता है उस समय तो वह सत् (विद्यमान) ही रहता है। परन्तु सांख्यों का उक्त कथन भी समीचीन नहीं है, मिथ्या ही है; क्योंकि यदि इस प्रकार से सभी ज्ञानों को प्रसिद्ध अर्थ का ग्राहक माना जाए तो फिर कौन ज्ञान भ्रान्त कहलाएगा? सब ज्ञान अभ्रान्त ही कहलाएँगे। तथा इस प्रकार से कौन ज्ञान भ्रान्त और कौन ज्ञान अभ्रान्त - इसकी कोई व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। तथा यदि पूर्वकाल में अर्थ सत् था और उत्तर काल में उसका अभाव हो गया तो वह कैसे हुआ - यह स्पष्ट करना चाहिए, जो नहीं किया जा सकता। तथा यदि प्रतिभासित जलादि अर्थ सत् होते हैं और उत्तर काल में उनका अभाव हो जाता है तो भूमि में आर्द्रता आदि उनके चिह्न तो अवश्य उपलब्ध होने चाहिए थे, क्योंकि जलादि पदार्थों का तत्काल निरन्वय विनाश नहीं देखा जाता। अतः विपर्ययज्ञान को प्रसिद्धार्थख्याति-रूप मानना भी ठीक नहीं है। 4. आत्मख्यातिवाद - विज्ञानाद्वैतवादी या योगाचार (बौद्ध) कहते हैं कि विपर्ययज्ञान आत्मख्यातिरूप होता है, क्योंकि उसमें जिस अर्थ का प्रतिभास होता है वह कोई अन्य नहीं, अपितु उस ज्ञान का अपना ही आकार है, परन्तु अनादिकालीन अविद्या के कारण बाह्य अर्थ जैसा प्रतीत होता है।
SR No.524769
Book TitleJain Vidya 24
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages122
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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