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अनिष्टाश्च त्यजेत्सर्वा
पार्वे गुरुणां नृपवत्प्रकृत्यभ्यधिकाः क्रियाः।
अनिष्टाश्च त्यजेत्सर्वा मनो जातु न दूषयेत् ॥ 2.47 ॥ सा.ध.. - राजा की तरह गुरुओं के पास अस्वाभाविक तथा शास्त्रनिषिद्ध समस्त चेष्टाओं को नहीं करना चाहिये। गुरु के मन को भी कभी भी दूषित नहीं करना चाहिये।
· अर्थात् - गुरुओं के सामने थूकना, सोना, जंभाई लेना, शरीर ऐंठना, झूठ बोलना, ठठोली करना, हँसना, पैर फैलाना, दोष लगाना, ताल ठोकना, ताली बजाना, विकार करना, अंग-संस्कार करना आदि नहीं करना चाहिये।
मध्ये जिनगृहं हासं विलासं दुःकथां कलिम्।
निद्रां निष्ठ्यूतमाहारं चतुर्विधमपि त्यजेत्॥ 6.14 ॥ सा.ध. -- जिनालय में हास्य, शृंगारयुक्त चेष्टारूप विलास, खोटी कथा, कलह, निद्रा, थूकना और चारों प्रकार का आहार आदि कार्य नहीं करना चाहिये।
अनु. - पं. कैलाशचन्द शास्त्री