________________
जैनविद्या - 22-23
83
आदि भावनाओं से वृद्धि को प्राप्त हो सम्पूर्ण हिंसा का त्याग करना पक्ष कहलाता है । अनन्तर कृषि आदि से उत्पन्न हुए दोषों को विधिपूर्वक दूर कर अपने पोष्य धर्म तथा धन का भार अपने पुत्र पर छोड़नेवाले के चर्या होती है और चर्यादि में लगे हुए दोषों को प्रायश्चित्त के द्वारा दूर करके मरण समय में आहार, मन, वचन, काय सम्बन्धी व्यापार और शरीर से ममत्व के त्याग से उत्पन्न होनेवाले निर्मल ध्यान से आत्मा के राग-द्वेष को दूर करना साधन होता है ।
श्रावक के तीन भेद - पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक के भेद से श्रावकों का तीन भागों में विभाजन आशाधरजी की मौलिक विशेषता है। श्रावकधर्म को ग्रहण करनेवाला पाक्षिक है तथा उसी श्रावक धर्म में जिसकी निष्ठा है, वह नैष्ठिक श्रावक कहलाता है और आत्मध्यान में लीन होकर समाधिमरण करनेवाला साधक कहलाता है । '
अष्टमूलगुण - रत्नकरण्ड श्रावकाचार में पञ्च अणुव्रतों को धारण करने के साथसाथ मद्य, मांस, मधु के त्याग को अष्टमूलगुण कहा है। आशाधरजी का कहना है कि जिनेन्द्र भगवान का श्रद्धालु श्रावक हिंसा को छोड़ने के लिए मद्य, मांस और मधु को तथा पाँच उदम्बर फलों को छोड़े। कोई आचार्य स्थूल हिंसादि का त्यागरूप पाँच अणुव्रत और मद्य, मांस, मधु के त्याग को अष्टमूलगुण कहते हैं अथवा इन्हीं मूलगुणों में मधु के स्थान में जुआ खेलने का त्याग करना मूलगुण कहा है।'
मद्य, मांस, मधु का त्याग, रात्रि - भोजन का त्याग और पञ्च - उदुम्बर फलों का त्याग ये पाँच और त्रैकालिक देववन्दना, जीवदया और पानी छानकर पीना - कहीं-कहीं ये अष्ट मूलगुण माने गए हैं। 20
इस प्रकार आशाधरजी ने अष्टमूलगुण के सन्दर्भ में अपने समय तक प्रचलित सभी मतों का उल्लेख कर सबका समाहार किया है। इन अष्टमूलगुणों का पालन करनेवाला व्यक्ति ही जिनधर्म सुनने के योग्य होता है ।" इन गुणों का पालन जिनपरम्परानुसार करनेवाले तथा मिथ्यात्वकुल में उत्पन्न हो करके भी जो इन गुणों के द्वारा अपनी आत्मा को पवित्र करते हैं, वे सब समान ही होते हैं, उनमें कोई अन्तर नहीं होता है । 12
मांस और अन्न दोनों प्राणी के अंग होने पर भी मांस त्याज्य क्यों है- कुछ लोगों का कहना है जिस प्रकार मांस प्राणी का अंग है, उसी प्रकार अन्न भी प्राणी का अंग है, अत: दोनों के खाने में दोष है । ऐसे व्यक्तियों के प्रति आशाधरजी ने एक सुन्दर दृष्टान्त दिया है -
-
प्राण्यङ्गत्वे समेऽप्यन्नं भोज्यं मांसं न धार्मिकैः ।
स्त्रीत्वाविशेषेऽपि जनैर्जायैवनाम्बिका ॥ 2.10 ॥