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________________ जैनविद्या - 22-23 रागादि अविद्या के नाश का सूत्र : उपेक्षा- विद्या 1 संसार-दुःख का मूल कारण पर वस्तुओं से सुख प्राप्ति की कामनारूप अविद्या है जो राग-द्वेष-मोहरूप है । इस अविद्या का छेदन उपेक्षारूप विद्या से होता है । उपेक्षा रागादि के अभाव को कहते हैं। उपेक्षा भाव की वृद्धि के साथ अविद्या का ह्रास और, आत्मगुणों का विकास उत्तरोत्तर होता है। इसी की पुष्टि में कहते हैं कि 'मुझ में जो अविद्या विद्यमान है उसे उपेक्षा नाम की विद्या से निरंतर काटते हुए मुझमें मेरे स्वरूप की प्रकटता होती है और यह प्रकटता क्रम-क्रम से चरम सीमा को भी प्राप्त हो जाती है (श्लोक 42 ) ।' अत: उपेक्षा- भाव धारण करना इष्ट है । समत्व, उपेक्षा एकार्थी हैं । 77 आत्मानुभूति की प्रक्रिया स्वात्मा विचार करता है कि पर्याय दृष्टि से समस्त वस्तुओं के विस्तार - आकार से पूर्ण होता हुआ भी मैं द्रव्य-दृष्टि से एक ही हूँ और निश्चयत: किसी भी शब्द का वाच्य नहीं होकर अनिर्वचनीय हूँ (श्लोक 43 ) । अतएव उस अनिर्वचनीय परब्रह्म परमोत्कृष्ट आत्मपद की प्राप्ति के लिए इस सूक्ष्म शब्द - ब्रह्म के द्वारा - 'सोऽहं ' इस प्रकार अन्तर्जल्प से मैं इस मन को संस्कारित करता हूँ (श्लोक 44 ) । इसमें ' सोऽहं ' शब्द - ब्रह्म से मन को संस्कारित करना चाहिये । - पश्चात्, आठ पत्रोंवाले अधोमुख (उलटा ) द्रव्यमनरूप कमल में, योग (ध्यान) रूप सूर्य के तेज से विकसित हृदय-कमल के भीतर स्फुरायमान परंज्योति-स्वरूप मैं हूँ, उसका अनुभव करना चाहिए ( श्लोक 45 ) । उक्त प्रक्रिया में मोहान्धकार के नष्ट होने और इन्द्रिय तथा मन रूप वायु का संचार रुकने पर यह पर-पदार्थों से शून्य तथा सम्यग्दर्शनादि आत्मगुणों से अशून्य मैं ही अन्तर्दृष्टि से मेरे द्वारा दिखाई दे रहा हूँ (श्लोक 46 ) । इस प्रकार से अपने आपको ही देखता हुआ मैं परम-एकाग्रता को प्राप्त होता हूँ और संवर-निर्जरा दोनों से प्राप्त होनेवाले आनन्द को भोगता हूँ - और इस दृष्टि से संवर और निर्जरा रूप मैं ही हूँ (श्लोक 47 ) । इस प्रकार - स्वरूप में लीन योगी अपने में ही अपना दर्शन करता हुआ परम एकाग्रता को प्राप्त होता है, आत्माधीन आनन्द को भोगता है। इससे पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा और नवीन कर्मों का आगमन (आस्रव) रुक जाता है और सहज आत्म-विकास सधता है । आत्मानुभवी योगी की सहज विचार परिणति भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म से रहित शुद्ध-स्वात्मा का अनुभव करनेवाला भव्य जीव विचार करता है कि 'शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से अनन्तानन्त चैतन्य शक्ति के चक्र का स्वामी होकर मैं अनादि अविद्या के संस्कार से इन्द्रिय एवं शरीर को अपना स्वरूप
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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