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________________ 70 जैनविद्या - 22-23 2. मति-बुद्धि - गुरुवाणी से प्राप्त श्रुति के द्वारा सम्यक् रूप से निरूपित शुद्ध स्वात्मा जिस मति या बुद्धि से युक्तिपूर्वक - नय प्रमाण द्वारा सिद्ध किया जाता है - अध्यात्म शास्त्र में मति कही जाती है (श्लोक 7)। जो पदार्थ जिस रूप में स्थित है उसको उसी रूप में देखती हुई धी (मति) जो सदा आत्माभिमुख होती है, वह बुद्धि के रूप ग्राह्य है, तब हे बन्धु! उस बुद्धि के आत्मा-सम्बन्ध को समझो (श्लोक 16)। ऐसी स्व-पर प्रकाशित बुद्धि का नाम सम्यग्ज्ञान है। ___3. ध्यानरूप परिणत बुद्धि-ध्याति - जो बुद्धि प्रवाहरूप से शुद्धात्मा में स्थिर वर्तती है, अपने शुद्धात्मा का अनुभव करती है, और शुद्धात्मा से भिन्न पर-पदार्थों के ज्ञान का स्पर्श नहीं करती उस बुद्धि (ज्ञान की पर्याय) को ध्याति कहते हैं (श्लोक 8)। ध्यानरूप परिणत या ध्येय को समर्पित बुद्धि ही ध्याति कहलाती है। ___4. दृष्टि (दिव्य दृष्टि) - जिसके द्वारा रागादि विकल्पों से रहित ज्ञानशरीरी स्वात्मा अपने शुद्ध स्वरूप में दिखाई दे और जिस विशिष्ट भावना के बल पर सम्पूर्ण श्रुतज्ञान स्पष्टतः अपने में प्रत्यक्ष रूप से प्रतिभासित होता है वह दृष्टि अध्यात्म-योग-विद्या में दिव्यदृष्टि कही जाती है (श्लोक 9)।अथवा जो दर्शन-ज्ञान लक्षण से आत्म-लक्ष्य को अच्छी तरह अनुभव करे-जाने वह संवित्ति 'दृष्टि' कहलाती है (श्लोक 10)। शुद्ध स्वात्मा का साक्षात्कार करानेवाली वह दृष्टि समस्त दुःखदायी विकल्पों को भस्म करती है, वही परमब्रह्म रूप है और योगीजनों द्वारा उपादेय होकर पूज्य-प्रार्थनीय है (श्लोक 11)। श्रुताभ्यास का उद्देश्य : दृष्टि एवं शुद्धोपयोग की प्राप्ति बुधजनों द्वारा सम्पूर्ण श्रुतसागर (शास्त्राभ्यास) के मंथन का उद्देश्य उस दृष्टि या संवित्ति की प्राप्ति है जिससे अमृतरूप मोक्ष प्राप्त होता है; अन्य सब तो मनीषियों का बुद्धिकौशल नि:सार है (श्लोक 12)। श्रुताभ्यास के द्वारा शुभउपयोग का आश्रय करता हुआ शुद्ध-स्वात्मा शुद्ध उपयोग में ही अधिकाधिक स्थिर रहने की भावना एवं श्रेष्ठनिष्ठा धारण करता है (श्लोक 55)। इसी कारण से स्वाध्याय को परम तप कहा है। कर्मबंधरूप संसार दुःख का कारण : अविद्या प्रेम (तीन वेद रूप परिणति), रति, माया, लोभ और हास्य यह पाँच (वेद सहित सात) राग के भेद हैं। क्रोध, मान, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा - ये छ: भेद द्वेष के हैं । दर्शन मोहनीय के मिथ्यात्वसहित राग ही मोह कहलाता है। राग-द्वेष-मोह बंध का कारण होने से मुमुक्षुओं द्वारा उपेक्षणीय होने पर भी अज्ञानी जीव कर्मों से प्रेरित होकर 'यह मेरा हित है ' या 'यह मेरा अहित है ' ऐसा मानता हुआ पदार्थों में राग या द्वेष करता है और कर्म-बंध से पीड़ित होता है (श्लोक 28)। मोह के कारण वह ऐसा मानता है
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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