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________________ जैनविद्या 22-23 'अध्यात्म-रहस्य' में संस्कृत भाषा के 72 श्लोक हैं । इसकी प्रतिपाद्य विषय-वस्तु अध्यात्म अर्थात् आत्मा से परमात्मा होने सम्बन्धित रहस्य अर्थात् मर्म का बोध कराना है । यह कृति धर्मामृतरूप भव्य प्रासाद का स्वर्ण- - कलश है। इसे अध्यात्म-योग-विद्या भी कही जा सकती है। अध्यात्म - रहस्य का दार्शनिक आधार आचार्यों कृत समयसार, भावपाहुड, अमृत कलश, समाधितंत्र, इष्टोपदेश, तत्वार्थसार, ज्ञानार्णव, योगसार आदि अध्यात्म ग्रंथ हैं। 68 4 स्व. पण्डित श्री जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' ने श्रम-साधनापूर्वक अध्यात्म रहस्य शोध-खोज एवं विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना एवं हिन्दी व्याख्या लिखकर वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली से वर्ष 1957 में प्रकाशित की थी, जो अब अनुपलब्ध है और पुनर्प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षपाहुड में और आचार्य पूज्यपाद ने समाधितंत्र में पर्याय दृष्टि से आत्मा के तीन भेद किये हैं- बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा । पण्डित आशाधरजी ने इन्हें क्रमशः स्वात्मा, शुद्धस्वात्मा और परब्रह्म के रूप में युक्तिपूर्वक निरूपित किया है । इस प्रकार अनादि अविद्या युक्त स्वात्मा (द्रव्य दृष्टि से शुद्धात्मा) से परब्रह्म - परमात्मारूप पूर्ण विकसित मुक्तात्मा की प्राप्ति ही अध्यात्म-रहस्य का लक्ष्य है, जो सभी जीवात्माओं को इष्ट है। पं. आशाधरजी के अनुसार कर्मजनित शारीरिक दुःख-सुख में अपनत्व अविद्या का छेदन, भेद-विज्ञानजन्य सम्यग्ज्ञान एवं उपेक्षारूप विद्या से होता है । इसका प्रारम्भ श्रुति, मति, ध्याति और दृष्टि इन चार सोपानों सहित आत्मानुभूति एवं शुद्ध उपयोग से होता है। शुद्ध उपयोग का साधक है - श्रुताभास, शुद्धात्मा एवं भगवती भवितव्यता की भावना । रत्नत्रयात्मक - शुद्ध-स्वात्मा को ही यथार्थ मोक्षमार्ग स्वीकार कर व्यवहार एवं निश्चय दोनों को कल्याणकारी घोषित किया है । मंगलाचरण - भगवान महावीर एवं गौतम सद्गुरु की वंदना भक्ति योग में अनुरक्त सुपात्र निकट भव्यों को अपना पद (सिद्धत्व) प्रदान करते हैं अर्थात् जिनकी सच्ची - सविवेक - भावपूर्ण भक्ति से भव्य प्राणी उन जैसे ही हो जाते हैं उन ज्ञानलक्ष्मी के धारक श्री भगवान महावीर और श्री गौतम गणधर को नमस्कार हो (श्लोक) । यह आराध्य से आराधक होने सूचक श्लोक है। पुनश्च उन सद्गुरुओं को नमस्कार है जिनके वचनरूपी दीपक से प्रकाशित (योग) मार्ग पर आरूढ़ योगी - ध्यानी मोक्ष - लक्ष्मी को प्राप्त करने में समर्थ होता है ( श्लोक 2 ) । सद्गुरु दो प्रकार के होते हैं 1. व्यवहार - सद्गुरु, जिसकी वाणी के निमित्त से योगाभ्यासी को शुद्धात्मा के साक्षात्कार की दृष्टि प्राप्त होती है और 2. निश्चय - सद्गुरु, -
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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