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जैनविद्या - 22-23
जीवन-यापनकर जीवनपर्यंत सभी के आदरणीय बने रहे। वे जीवन के अन्त तक गृहस्थ श्रावक ही रहे किन्तु जिन सहस्रनाम की रचना करते समय वे संसार के देह-भोगों से उदासीन हो गये थे और उनका मोहावेश शिथिल हो गया था, जैसा कि उनके निम्न वाक्यों से प्रगट है .
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प्रभो भवांग भोगेषु निर्विण्णो दुखभीरूकः
एष विज्ञापयामि त्वां शरण्यं करुणार्णवम् ॥ 1॥
अद्य मोहग्रहावेश शैथिल्यात्किञ्चि दुन्मुखः (सहस्रनाम)
सहस्रनाम की रचना संवत् 1296 से पूर्व हो चुकी थी, जैसाकि जिनयज्ञकल्प की प्रशस्ति में उसका उल्लेख है । अत: सं. 1296 से कुछ पूर्व वे उदासीन श्रावक हो गये थे। तत्वविद् आत्मार्थी व्यक्तित्व सहज ही देह-भोगों एवं संसार से उदासीन हो जाता है जिसकी पुष्टि पण्डित प्रवर आचार्यकल्प पं. आशाधरजी के उक्त कथन से होती है ।
महाकवि पं. आशाधरजी तेरहवीं शताब्दी के जैन साहित्याकाश के जाज्वल्यमान प्रतिभाशाली नक्षत्र थे । वे अध्यात्म, दर्शन, न्याय, काव्य, राजनीति, व्याकरण, आयुर्वेद आदि एवं सुसंस्कृत भाषा के विश्रुत अधिकारिक अद्वितीय जैन महाकवि एवं विद्वान थे । उनकी तुलना में उस काल में अन्य कोई जैन गृहस्थ विद्वान नहीं हुआ। यह बात पृथक् है कि अठारहवीं एवं बीसवीं शताब्दी में जैनदर्शन के अनेक प्रतिभाशाली एवं मेधावी गृहस्थ विद्वान हुए जिन्होंने करणानुयोग और द्रव्यानुयोग के ग्रन्थों के गूढ़ अध्ययन, चिंतन एवं लेखन द्वारा जैन टीका साहित्य को समृद्ध किया और कर रहे हैं। उनके योगदान को सदैव स्मृत किया जाता रहेगा और जैन समाज उनका ऋणी रहेगा। ऐसे महानुभाव समाज को अनुप्राणित एवं आत्मार्थी बनाने में अग्रणी रहेंगे।
जीवन परिचय
महाकवि पं. आशाधरजी के पितामह मूलतः माँडलगढ़ (मेवाड़) के निवासी थे । वहीं पं. आशाधरजी का जन्म हुआ । इनकी जाति बघेरवाल थी। आपके पिता का नाम 'सल्लखण' और माता का नाम 'श्री रत्नी' था। इनकी पत्नी का नाम सरस्वती था जो नाम के अनुरूप सुशिक्षित और सुशील थीं । पुत्र का नाम छाहड़ था जिसकी प्रशंसा पं. आशाधरजी ने 'यः पुत्रं छाहडं गुण्यं रंजितार्जनभूपतिम् ' - अर्जुन भूपति को अनुरंजित करनेवाले के रूप में की है। आपके पिताश्री भी अध्यात्म- रसिक एवं निष्ठावान श्रावक थे जिनकी प्रेरणा से पं. जी ने ' अध्यात्म रहस्य' नामक ग्रन्थ की रचना की। मालवा नरेश अर्जुनवर्मदेव के भाद्रपद सुदी 15, बुधवार सं. 1272 के दानपात्र के अंत में लिखा है - 'रचितमिदं महासन्धि राजा सलखण संमतेन राजगुरूणा मदनेन' । अर्थात् यह दानपत्र महासन्धि विग्रह मंत्री सलखण की सम्मति