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जैनविद्या - 22-23 देवपाल राजा के पुत्र श्रीमत् जैतुंगिदेव अवन्तिका में राज्य करते थे। प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि पोरवाड्वंश के समृद्ध सेठ (श्रेष्ठि) के पुत्र महीचन्द्र साहू के अनुरोध किए जाने पर श्रावक धर्म के लिए टीपकरूप इस ग्रन्थ की रचना की थी। उन्हीं महीचन्द्र साहू ने सर्वप्रथम इसकी प्रथम पुस्तक लिखी थी । इसके अन्त में 24 श्लोकों की प्रशस्ति भी उपलब्ध है। यह टीका वि.सं. 1972 में मणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, मुम्बई से दूसरे पुष्प के रूप में प्रकाशित हुई थी। इसके पश्चात् जैन साहित्य प्रसार कार्यालय, गिरगांव, मुम्बई से वीर नि.सं. 2454, सन् 1928 में प्रकाशित हुई।
(ब) अनगार धर्मामृत टीका में उल्लिखित ग्रन्थ - वि.सं. 1300 में सम्पन्न इस अनगार टीका में उपर्युक्त ग्रन्थों के अलावा वि.सं. 1296 में रचित ग्रन्थों का उल्लेख हुआ जो निम्नांकित हैं
19. राजीमती विप्रलम्भ - यह ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं है। आशाधर ने लिखा है कि यह एक खण्डकाव्य है जिसमें नेमिनाथ और राजुल के वैराग्य का वर्णन हुआ है। इस पर कवि ने स्वोपज्ञ टीका भी लिखी थी। इसकी रचना वि.सं. 1296-1300 के बीच में कभी हुई थी, क्योंकि इसका उल्लेख इससे पूर्व में रचित प्रशस्ति मे नहीं हुआ है।
20. अध्यात्म रहस्य - पं. आशाधर ने अपने पिता के आदेश से इस प्रशस्त और गम्भीर ग्रन्थ की रचना की थी। यह ग्रन्थ योग का अभ्यास प्रारम्भ करनेवालों के लिए बहुत प्रिय था। इसका दूसरा नाम योगोद्दीपन-शास्त्र भी मिलता है। यह ग्रन्थ वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली से वि.सं. 2014 सन् 1957 में जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' का हिन्दी अनुवाद और व्याख्यासहित प्रकाशित हो चुका है। पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से सन् 1977 में प्रकाशित धर्मामृत (अनागार) की प्रस्तावना (पृ. 55) में इसे अप्राप्त लिखा है। इसी प्रकार बघेरवाल सन्देश की प्रस्तावना में डॉ. मानमल जैन ने भी इस ग्रन्थ को अप्राप्त लिखा है, जो सत्य नहीं हैं।
इस ग्रन्थ में 72 पद्य हैं। इसका विषय अध्यात्म (योग) से सम्बन्धित है, आत्मापरमात्मा के सम्बन्ध का मार्मिक विवेचन है।
21. अनगार धर्मामृत टीका - इस ग्रन्थ की रचना वि.सं. 1300 में नलकच्छ के नेमि जिनालय में देवपाल राजा के पुत्र जैतुंगिदेव अवन्ति (मालवा) के राजा के समय में हुई थी। अनुष्टुपछन्द में रचित ग्रन्थ कार्तिक सुदि पंचमी, सोमवार को पूरा हुआ था। इस ग्रन्थ का परिमाण 12200 श्लोक के बराबर है। यतिधर्म को प्रकाशित करनेवाली और मुनियों को प्रिय इस ग्रन्थ की रचना आशाधर ने की थी। इसकी प्रशस्ति में कहा गया है कि खंडिल्यन्वय के परोपकारी युगों से युक्त एवं पापों से रहित जिस पापा साहु के अनुरोध से जिनयज्ञकल्प की रचना हुई थी, उसके तीन पुत्रों में से हरदेव ने प्रार्थना की कि मुग्धबुद्धियों को समझाने के लिए महीचन्द्र साह के अनुरोध से आपने जिस धर्मामृत