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________________ जैनविद्या - 22-23 अप्रेल - 2001-2002 125 सागारधर्मामृत में भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेचन - श्रीमती अर्चना प्रचण्डिया मानव जीवन का आधार दो बिन्दुओं पर केन्द्रित है - एक आचार और दूसरा विचार। आचार का आधार है आहार । आहार जीवन का अनिवार्य अंग है। यह मनुष्य की वृत्तियोंप्रवृत्तियों व भावों-विचारों को रूपान्तरण करने की शक्ति व चेतना को परिष्कृत व ऊर्जस्वल बनाए रखता है। व्यक्तित्व के विकास में आहार की भूमिका सर्वोपरि मानी गई है। मानव जीवन का लक्ष्य यदि आत्म-उत्कर्ष पर आधृत है तो निःसन्देह ऐसे मानवसाधक या श्रावक-श्रमण को सर्वप्रथम अपने आहार पर ध्यान देना होता है। उसका आहार-विवेक सदा सक्रिय एवं सचेत रहता है। जीवन-यापन के लिए जो कुछ भी वह आहार के रूप में ग्रहण करता है, ग्रहण से पूर्व उसके समक्ष उसका लक्ष्य सदा विद्यमान रहता है । अस्तु, उसकी चित्तवृत्तियाँ अन्तरंग से ही अभक्ष्य की ओर से हट जाती हैं । भक्ष्य और अभक्ष्य का सम्यक्बोध उसे परिमित, मर्यादित, सन्तुलित, सात्विक तथा आत्मसाधना में व्यवधान उपस्थित न करनेवाले शाकाहारी और खाद्य पदार्थ लेने की प्रेरणा प्रदान करता पण्डित आशाधरजी कृत 'सागारधर्मामृत' में जहाँ श्रावकों के मूल व उत्तर गुणों आदि की चर्चा हुई है, वहीं श्रावकों के लिए कौन-से पदार्थ खाने योग्य हैं और कौन-से त्यागने
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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