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जैनविद्या - 22-23
119 पण्डित आशाधरजी स्थूल चोरी की चर्चा करते हुए कहते हैं कि यह चोर है, यह धर्मपातकी है, यह हिंसक है, इत्यादि नाम धरानेवाली चोरी स्थूल चोरी है। किसी की दीवार फोड़कर, किसी तरह बिना दिया हुआ दूसरे का धन ले लेना भी स्थूल चोरी है। ऐसे स्थूल चोरी का जिसने परित्याग कर दिया हो वह अचौर्याणुव्रती कहलाता है। पण्डित प्रवर आगे कहते हैं कि जो पुरुष संक्लेश परिणामों से अर्थात् 'यह पदार्थ मुझे चाहिए' ऐसे लोभ से बिना दिये हुए दूसरे के तृण आदि न कुछ पदार्थ भी ग्रहण करता है अथवा उठाकर दूसरे को दे देता है वह अवश्य ही चोर है। पण्डित आशाधरजी की दृष्टि में जो धन पृथ्वी में गड़ा हो या जिसका कोई स्वामी न हो उसे भी ग्रहण करना चोरी है। इसके साथ ही जो पदार्थ अपना ही है परन्तु यदि उसके अपने होने से सन्देह हो उसे भी प्रयोग में लाना चोरी ही है। __परस्त्रीगमन - ब्याहता/स्वकीया की अपेक्षा परकीया के साथ उसकी ही संस्तुति से संसर्ग स्थापित करना या संसर्ग करने की भावना परस्त्रीगमन कहलाता है, जो व्यभिचार को बढ़ावा देता है, पापाचार का संवर्धन करता है। वाल्मीकि ऋषि और कविकुल गुरु कालिदास तो परस्त्रीसेवन को अनार्यों का कार्य कहते हैं । आचार्य मनु इसे निकृष्टतम कार्य मानते हैं। यह व्यसन सामाजिक, धार्मिक और नैतिक दृष्टियों से अहितकर है।
परस्त्रीगामी का न तो अपना विवेक होता है और न ही वह अपने धर्म का, कर्त्तव्य का सम्यक पालन ही कर पाता है। वह सदा अविश्वासी व असन्तुष्ट रहता है। धर्मशास्त्र कहते हैं - ऐसे व्यसनी को सिवाय पापों के और दु:खों के कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। उसे कोई भी वस्तु अच्छी नहीं लगती है, नींद भी उसे नहीं आती है। वह केवल विरह से संतप्त रहता है।40 पं. आशाधरजी परस्त्रीसेवन के विषय में कहते हैं कि परस्त्रीसेवन हिंसा, झूठ और चोरी आदि पापों से भरा हुआ है। इससे जीव स्वयं नष्ट होता है, जातिभ्रष्ट होता है और धर्म, अर्थ और काम इन त्रय पुरुषार्थों से भी भ्रष्ट होता है। पण्डितप्रवर
की दृष्टि में परस्त्रीसेवन करनेवाले को द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा दोनों ही बहुत होती हैं क्योंकि उसके राग-द्वेष की तीव्रता अधिक होती है। परस्त्रीसेवन में भी सुख नहीं मिलता है, क्योंकि उसमें यह शंका बनी रहती है कि मुझे कोई अपना या पराया मनुष्य देख न ले। वास्तव में परस्त्रीगमन अर्थात् पराई स्त्री के साथ अनुचित सम्बन्ध से आत्मिक गुणों का पतन होता है। ____ पण्डित प्रवर आशाधरजी 'सागारधर्मामृत' में एक आदर्श दर्शनिक श्रावक की चर्या को पापबन्ध से रोकने के लिए इन सप्तव्यसनों से संदर्भित त्यागवत के अतिचारों का भी जो उल्लेख करते हैं वह सर्वथा उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है।
द्यूत-त्यागवत के अतिचार के सन्दर्भ में पण्डित प्रवर का कथन है कि जिसने द्यूत क्रीड़ा-त्याग का व्रत ले लिया है ऐसे दर्शनिक श्रावक के लिए मन प्रसन्न करने हेतु भी