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________________ जैनविद्या - 22-23 107 11. वशी - जो पाँचों इन्द्रियों को नियन्त्रित रखता है, जो इष्ट विषयों में राग तथा अनिष्ट विषयों में अत्यधिक द्वेष नहीं रखता। 12. धर्मविधिशृण्वन् - जो आत्मकल्याण के लिए प्रतिदिन धर्मोपदेश श्रवण करता है। 13. दयालु - धर्म का मूल दया है, यह जानकर जिसकी सदैव दुःखियों के दुःख को दूर करने की इच्छा रहती है, परदुःख निवारण जिसका स्वभाव है । 14. अघभी - जो हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्रीसेवन, मद्यपान आदि पापों से सदैव डरता है, उन पाप-कार्यों में कभी प्रवृत्त नहीं होता । उक्त गुणों से युक्त व्यक्ति ही सद्गृहस्थ कहलाने का अधिकारी है । आगम के अनुसार श्रद्धा और विवेकपूर्वक गृहस्थ धर्म का सम्यक् परिपालन करनेवाला व्यक्ति ही श्रावक कहलाता है। पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक श्रावक के तीन भेद बताये हैं . पाक्षिकादिभिका त्रेधा श्रावकस्तत्र पाक्षिकः । तद्धर्मगृह्यस्तन्निष्ठः नैष्ठिकः साधकः स्वयुक् ॥ 1.20 ॥ श्रावक धर्म को स्वीकार कर देशसंयम की ओर उन्मुख गृहस्थ पाक्षिक श्रावक, निष्ठापूर्वक अतिचाररहित देशसंयम का पालन करनेवाला गृहस्थ नैष्ठिक श्रावक तथा समाधिमरण की साधना करनेवाला गृहस्थ साधक कहलाता है। जैन आगम में अहिंसा को ही परम धर्म, सब धर्मों का मूल कहा गया है। पूर्ण अहिंसा का पालन तो गृहत्यागी मुनि ही कर सकते हैं, किन्तु गृहस्थ को भी अपनी शक्ति के अनुसार स्थूलहिंसा से बचने का प्रयत्न करना चाहिये। स्थूलहिंसा से बचने के लिए पक्षिक श्रावक को मद्य, मांस, मधु तथा पाँच उदम्बर फलों का त्याग कर आठ मूल गुणों का पालन करना आवश्यक है । पं. आशाधरर्जी कहते हैं - तत्रादौ श्रद्दधज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुम् । मद्यमांसमधून्युज्झेत्पञ्चक्षीरफलानि च ॥ 22 ॥ आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने भी पुरुषार्थसिद्धयुपाय में पाक्षिक श्रावक के लिये मद्यमांस-मधु और पाँच उदम्बर फलों का त्याग आवश्यक बताया है। वे कहते हैं मद्यं मांसं क्षोद्रं पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन । हिंसाव्यु परतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव ॥ 61 ॥ स्वामी समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में मद्य, मांस और मधु त्याग के साथ अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाणुव्रत इन पाँच अणुव्रतों को आठ मूलगुण माना है । वे कहते हैं -
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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