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जैनविद्या - 22-23
अप्रेल - 2001-2002
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सागारधर्मामृत में वर्णित प्रतिमा : प्रयोग और प्रयोजन
- डॉ. महेन्द्रसागर प्रचंडिया
प्राणधारियों में मनुष्य एक श्रेष्ठ प्राणी है। उसकी श्रेष्ठता का आधार है उसमें निहित दर्शन, ज्ञान और चारित्र विषयक अपूर्व शक्ति और सामर्थ्य । गृहस्थ और संन्यासी के भेद से मनुष्य-जीवन की दो प्रमुख अवस्थाएँ हैं। विवेकवान अणुव्रती गृहस्थ को वस्तुतः श्रावक कहा जाता है।' श्रावक को पाक्षिक, नैष्ठिक तथा साधक के रूप में तीन भेदों में विभक्त किया गया है।
श्रावक के दर्शन, ज्ञान और चारित्र विषयक विकास-क्रम का नाम है प्रतिमा। प्रतिमा अर्थात् श्रेणी। प्रतिमा का अपरनाम निलय भी है। प्रतिमा शब्द आज पारिभाषिक हो गया है । अधुनातन समय और समाज में हम लौकिक शिक्षात्मक विकास क्रम को जैसे 'कक्षा' नामक संज्ञा से अभिहित करते हैं, उसी प्रकार आत्मिक और आध्यात्मिक उदय और उत्थान की अवबोधक संज्ञा को 'प्रतिमा' कहा जाता है।
श्रावक के क्रमिक विकास के लिए एकादश प्रतिमाओं के अनुपालन को आवश्यक माना गया है। एकादश प्रतिमाएँ निम्नवत हैं, यथा -
1. दर्शन प्रतिमा 2. व्रत प्रतिमा