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________________ 97 जैनविद्या - 22-23 का उपभोग करते हुए भी, तत्त्वज्ञान और देश-संयम के कारण, निर्लिप्तवत् अथवा न भोगते हुए के समान प्रतीत होते हैं, अतएव पं. आशाधर ने 'प्रायः' शब्द ('प्रायो विषयमूर्छिता:') का प्रयोग किया है। __'सागार धर्मामृत' के कुल आठ अध्यायों में जैनाचार के विभिन्न आयामों, जैसे - आठ मूलगुण, मद्य-मांस आदि के दोष, गृहस्थ-धर्म के पालन की अनुज्ञा, नैष्ठिक श्रावक के स्वरूप और कृत्य, व्रतिक प्रतिमा का स्वरूप, गुणव्रत, सामायिक-स्वरूप और उसकी विधि, श्रावक की दिनचर्या, सचित्त-अचित्त का विचार, साधक श्रावक-स्वरूप, समाधिमरण की विधि आदि के अतिरिक्त अनेक कर्मकाण्ड-विधियों का विशद वर्णन पं. आशाधर ने किया है। कर्मकाण्ड के मूल्य-महत्व की दृष्टि से जिनवाणी का पूजाविधान, गुरु उपासना की विधि, दान देने का विधान तथा फल, जिनपूजा की सम्यविधि तथा उसका फल, अष्टाह्निका, इन्द्रध्वज एवं महापूजा का स्वरूप, विवाह-विधि, अहिंसाव्रत को निर्मल रखने की विधि, प्रथमबार भिक्षा की विधि, स्वदार-सन्तोषाणुव्रतस्वीकार की विधि, प्रोषध विधि, मध्याह्न में देवपूजा की विधि, समाधिमरण में आहारत्याग की विधि आदि कर्मकाण्डीय विषयों की उपस्थापना विस्तार से की गई है। यहाँ दो-एक पूजा-विधियाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं। जिनपूजा की सम्यक् विधि और उसका लोकोत्तर फल - चैत्यादौ न्यस्य शुद्धे निरुपरमनिरौपम्य तत्तद्गुणौघश्रद्धानात्सोऽयमर्हन्निति जिनमनघैस्तद्विधोपाधिसिद्धैः। नीराद्यैश्चारुकाव्यस्फुरदनणुगुणग्रामरज्यन्मनोभि भव्योऽर्चन् दृग्विशुद्धिं प्रबलयतु यया कल्पते तत्पदाय ॥ 2.31॥ स्रग्धरा छन्द में आबद्ध इस काव्यमयी जिनपूजा-विधि का वर्णन अवश्य ही अतिशय मनोज्ञ है। इसका सारभूत अर्थ है - निर्दोष जिन-प्रतिमा में और उसके अभाव में अक्षत आदि में जिनदेव की स्थापना करके दोषरहित तथा निष्पाप साधनों से तैयार किये गये जल-चन्दन आदि से मनोरम गद्य-पद्यात्मक काव्यों में वर्णित महान् गुणों में मन को अनुरक्त करते हुए पूजन करनेवाला भव्य, सम्यग्दर्शन की विशुद्धि को अधिक सबल बनाता है और दर्शन-विशुद्धि के द्वारा तीर्थंकर-पद को पाने में सफल होता है। जिनवाणी की पूजा का विधान - यत्प्रसादान जातु स्यात् पूज्यपूजाव्यतिक्रमः। तां पूजयेज्जगत्पूज्यां स्यात्कारोड्डुमरां गिरः॥ 2.43 ॥ अर्थात्, जिसके प्रसाद से पूज्य अर्हन्त, सिद्ध, साधु और धर्म की पूजा में यथोक्त पूजाविधि का कभी लंघन नहीं होता, उस जगत्पूज्य और 'स्यात्' पद के प्रयोग द्वारा
SR No.524768
Book TitleJain Vidya 22 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2001
Total Pages146
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size9 MB
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