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और व्याधि से उबरने के लिए रत्नकरण्ड श्रावकाचार की प्रासंगिकता आज भी असंदिग्ध है।
रत्नकरण्ड की शब्दावलि आज के पाठी के लिए वस्तुत: पारिभाषिक हो गयी है। जन-सामान्य के लिए उस शब्दावलि का प्रयोग और प्रयोजन वस्तुत: विशेष अध्ययन और अनुशीलन की अपेक्षा रखता है । इसी अभाव को ध्यान में रखकर 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार की पारिभाषिक शब्दावलि: प्रयोग और प्रयोजन' विषयक संक्षिप्त अध्ययन करना यहाँ हमारा मूलाभिप्रेत है ।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्रयुक्त सात पारिभाषिक शब्दों का विश्लेषण अकारादि क्रम से निम्नांकित रूप में किया जा सकता है, यथा
1- अतिचार, 4- प्रतिमा,
7- सामायिक ।
अतिचार
यथा -
अतिचार शब्द के अनेक अर्थ किए गए हैं - अतिक्रमण, आगे बढ़ जाना, एक राशि का भोग काल समाप्त हुए बिना दूसरे में चला जाना, मर्यादा का उल्लंघन, बहुत खेल-तमाशे देखने का दोष आदि अर्थअभिप्राय उल्लेखनीय हैं।
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जैनागम में अतिचार शब्द से जो अर्थ लिया गया है उसमें निजता मुखर हो उठी है । किसी करने योग्य कार्य के न करने पर और त्यागने योग्य पदार्थ के त्याग न करने पर जो पाप होता है उसे वस्तुतः अतिचार कहा गया है ' ।
आचार्य समन्तभद्र ने श्रावकाचार में विविध व्रतों के संदर्भ में अतिचार शब्द का प्रयोग किया है।
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2- अनुयोग,
5- वैयावृत्त्य,
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अणुव्रत में पाँच-पाँच प्रकार का अतिचार
गुणव्रत में पाँच-पाँच प्रकार का अतिचार
शिक्षाव्रत में पाँच-पाँच प्रकार का अतिचार
4 संलेखना में पाँच प्रकार का अतिचार
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जैन विद्या 18
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3- देव,
6- सल्लेखना,
पच्चीस प्रकार,
पन्द्रह प्रकार,
बीस प्रकार,
पाँच प्रकार ।
( 1 ) छेदन - अर्थात् नाक, कान आदि अंगों का काटना ।
(2) बंधन अर्थात् रस्सी या जंजीर से किसी को बाँधना ।
इस प्रकार उक्त व्रतों के संदर्भ में पैंसठ प्रकार के अतिचारों की चर्चा उल्लिखित है । इन सभी अतिचारों की क्रमिक स्थिति पर निम्न प्रकार विचार किया जा सकता है। अहिंसाणुव्रत के अतिचार निम्नांकित हैं', यथा
(3) पीड़न पीटना, घायल करना ।
(4) अतिभारारोहण - शक्ति और सामर्थ्य से अधिक बोझ लादना ।