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जैनविद्या 18
नैवासतो जन्म सतो .
सत: कथंचित्त दसत्वशक्तिः खे नास्ति पुष्पं तरुषु प्रसिद्धम् । सर्वस्वभावच्युतमप्रमाणं स्ववाग्विरुद्धं तव दृष्टितोऽन्यत् ॥23॥ न सर्वथा नित्यमुदेत्यपैति न च क्रियाकारकमत्र युक्तम् । नैवासतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तम: पुद्गलभावतोऽस्ति ।। 24।। विधिर्निषेघश्च कथंचिदिष्टौ विवक्षया मुख्यगुणव्यवस्था । इति प्रणीतिः सुमतेस्तवेयं मतिप्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ ||25||
- स्वयंभूस्तोत्र
- जो सत् है उसके कथंचित् असत्वशक्ति भी होती है। जैसे - पुष्प वृक्षों पर तो अस्तित्व लिये हुए
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प्रसिद्ध है परन्तु आकाश पर उसका अस्तित्व नहीं है । आकाश की अपेक्षा वह असत्-रूप है। यदि वस्तुतत्व को सर्वथा स्वभावच्युत माना जाय तो वह अप्रमाण ठहरता है। इसी से आपकी दृष्टि से सर्वजीवादि तत्व कथंचित् सत्-असतरूप अनेकात्मक हैं। इस मत से भिन्न वह वचन - विरुद्ध है ।
• यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वह उदय अस्त को प्राप्त नहीं हो सकती और न उसमें क्रियाकारक की ही योजना बन सकती है। जो सर्वथा असत् है उसका कभी जन्म नहीं होता और जो सत् है उसका कभी नाश नहीं होता । दीपक भी बुझने पर सर्वथा नाश को प्राप्त नहीं होता किन्तु उस अन्धकाररूप पुद्गल-पर्याय को धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है।
- विधि और निषेध दोनों कथंचित् इष्ट हैं। विवक्षा से उनमें मुख्य-गौण की विवक्षा होती है। इस प्रकार हे सुमति जिन ! आपका जो यह तत्वप्रणयन है इस तत्वप्रणयन के द्वारा आपकी स्तुति करनेवाले मुझे तोता की मति का उत्कर्ष होवे ।
अनु. - पं. जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'