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________________ जैनविद्या 18 33 पद से इस रचना का ज्ञान होता है। इस रचना को भगवान महावीर के वचनों जैसा प्रकाशमान बतलाया है। 2. गन्धहस्ति महाभाष्य - यह तत्वार्थसूत्र पर लिखा गया चौरासी हजार श्लोकप्रमाण महाभाष्य है । इसका उल्लेख 14वीं शताब्दि के विद्वान हस्तिमल्ल ने अपने 'विभ्रांत कौरव' नाटक की प्रशस्ति में किया है, यथा- " तत्त्वार्थसूत्र व्याख्यान गंधहस्ति प्रवर्तकः स्वामी समन्तभद्रोऽभूद्देवागम निदेशकः” । अन्य प्राचीन ग्रंथों में भी 'गन्धहस्ति महाभाष्य' का उल्लेख आया है। 3. तत्त्वानुशासन - श्वेताम्बर कान्फ्रेन्स द्वारा प्रकाशित 'दिगम्बर जैन ग्रंथ कर्ता और उनके ग्रंथ' की सूची में इसका उल्लेख है। श्री हरिभद्र सूरि ने अपने 'अनेकान्त जयपताका', शान्त्याचार्य ने अपने 'प्रमाण- कलिका' तथा वादिदेव सूरि ने 'स्याद्वाद रत्नाकर' में स्वामी समन्तभद्र के नाम से दो श्लोक उद्धृत किये हैं जो उनके उपलब्ध ग्रंथों में नहीं मिलते। पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की टीका में 'तथा चोक्तं तत्त्वानुशासने' वाक्य से भी इस ग्रंथ का आभास होता है । उक्त श्लोक भी तत्त्वानुशासन का होना सम्भावित है। 4. प्रमाण पदार्थ - मूडबद्री के पडुवस्तिभंडार की सूची के अनुसार एक हजार श्लोक प्रमाण न्याय विषयक यह अपूर्वग्रंथ है जो स्वामी समन्तभद्र द्वारा लिखा गया है। 5. प्राकृत व्याकरण - बारह हजार श्लोकप्रमाण का 'प्राकृत व्याकरण' जैन ग्रंथावली से ज्ञात होता है जिसका उल्लेख 'रायल एशियाटिक सोसायटी' की रिपोर्ट के आधार पर किया है । श्रीपूज्यपाद स्वामी ने अपने जैनेन्द्र व्याकरण में 'चतुष्टयं समंतभद्रस्य' सूत्र का उल्लेखकर स्वामी समन्तभद्र के मत को व्यक्त किया है जो उनकी व्याकरण कृति होने की पुष्टि करते हैं। 6. कर्मप्राभृत टीका - श्री इन्द्रनन्दिकृत 'श्रुतावतार' के श्लोक क्र. 167 से 170 के अनुसार स्वामी समन्तभद्र ने षट्खण्डागम (कर्म प्राभृत) के प्रथम पाँच खण्डों की 48 हजार श्लोकप्रमाण टीका की थी, जो सुन्दर और मृदु थी । वे कषायप्राभृत पर भी टीका लिखना चाहते थे किन्तु ऐसा नहीं कर सके । स्वामी समन्तभद्र-रचित उक्त ग्रंथों की शोध / खोज आवश्यक है। इन ग्रंथों के उपलब्ध होने पर जैन न्याय, दर्शन और कर्म सिद्धान्त के सूक्ष्म रहस्यों का ज्ञान होगा और ऐसे विवादित बिन्दुओं का सह समाधान होगा जो लोकेषणा या अधिक ज्ञान की अभिव्यक्ति के प्रयास में जैन- सिद्धान्तों की मूल - आत्मा को कचोटते प्रतीत होते हैं, जैसे कर्म -बंध में मिथ्यात्व की भूमिका, कर्म से निष्कर्म में ज्ञान की भूमिका, मनोविकारों या कषायों को मंद करने की घोषणा आदि । स्वामी समन्तभद्र सर्वांगीण रूप से भद्र महापुरुष थे । उनका जीवन मुमुक्षुओं के लिए सदैव
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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