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________________ जैन विद्या 18 अपेक्षा -युक्त स्याद्वादमयी वचनशैली की अनिवार्यता स्वामी समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में सिद्ध की है। रचना का उद्देश्य स्व- हित चाहनेवालों को सम्यक् और मिथ्या उपदेश में भेद - विज्ञान कराना है। 28 सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध जैनाचार्य अकलंक देव ने आप्त-मीमांसा का अष्टशती नामक गहनगम्भीर भाष्य लिखकर जैन न्याय को प्रतिष्ठापित किया और बौद्धों को शास्त्रार्थ में पराजितकर जैन न्याय प्रमाणिकता और परिपूर्णता सिद्ध करते हुए उसकी प्रतिष्ठापना की। इसके पश्चात 9वीं शताब्दि के जैनाचार्य विद्यानन्द ने आप्त-मीमांसा की अष्टसहस्री नामक टीका लिखकर अष्टशती के सार-रहस्य को स्पष्ट किया। स्वामी समन्तभद्र की विचारधारा, हृदयग्राही तार्किकता एवं रचना - शैली को समझने हेतु कतिपय बिन्दुओं पर प्रकाश डालना समीचीन होगा - दैव और पुरुषार्थ - कार्य की सिद्धि दैव (भाग्य) से होती है या पुरुषार्थ से, यह प्रश्न सदैव जिज्ञासा पैदा करता है। पूर्व अर्जित कर्म का फल या तत्कालीन योग्यता का नाम दैव है जबकि बुद्धिपूर्वक सार्थक प्रयास पुरुषार्थ कहलाता है। किसी इष्ट तत्व की प्राप्ति में दैव और पुरुषार्थ दोनों का योगदान होता है । कार्य की सिद्धि के लिए योग्यता होना जरूरी है। योग्यता होने पर पुरुषार्थ करने पर सफलता नियम से मिलती है। बिना पुरुषार्थ के योग्यता भी फल नहीं देती । दैव एवं पुरुषार्थ के मध्य भेद-रेखा खींचते हुए स्वामी समन्तभद्र कहते हैं कि बुद्धिपूर्वक इष्ट-अनिष्ट की जो प्राप्ति होती है वह पुरुषार्थ से होती है और अबुद्धिपूर्वक इष्ट-अनिष्ट की जो अर्थ प्राप्ति होती है वह दैव से होती है (श्लोक 91 ) । पाप और पुण्य के बंध का कारण प्रायः अपने या पर को दुख या सुख देने को पाप या पुण्यबंध का कारण माना जाता है। स्वामी समन्तभद्र कहते हैं कि स्व-पर में सुख-दुख का निमित्त बनने से पुण्य-पाप का बंध होने पर अचेतन और कषायरहित जीवों को भी कर्मबन्ध होगा, जो इष्ट नहीं है। इसी प्रकार पर को दुख या स्व को सुख देने से पाप-बंध अथवा पर को सुख या स्व को दुख नहीं होता। यह एकान्तिक कथन है। पाप-पुण्य का बंध संक्लेश और विशुद्ध परिणामों से होता है। पुण्य-बन्ध स्व और पर में होनेवाला सुख और दुख यदि विशुद्धि (धर्म और शुक्ल ध्यानरूप शुभभाव) का अंग है तो पुण्य-बंध होता है और यदि संक्लेश (आर्त और रौद्र ध्यानरूप अशुभ भाव) का अंग है तो पाप बंध होता है। यदि स्वर सुख - दुख विशुद्धिसंक्लेश का कारण नहीं है तो पुण्य-पाप का आम्रव व्यर्थ है (श्लोक 95 ) । यह ज्ञातव्य है कि तत्वार्थ सूत्र के अनुसार मिथ्यात्व, अव्रत (अविरति), प्रमाद, कषाय और योग इन आर्त- रौद्र परिणामों के कारण संक्लेश परिणाम ही होते हैं। अल्प ज्ञान या अज्ञान से बंध- मोक्ष-व्यवस्था - सांख्य मतावलम्बी प्रकृति और पुरुष में भेदविज्ञान न होने से अर्थात् अज्ञान से कर्म-बंध मानते हैं और भेद-विज्ञानी को केवली मानते हैं। वैशेषिक मत के अनुसार इच्छा और द्वेष से बंध होता है। बौद्ध मत के अनुसार अविद्या और तृष्णा से बंध होता है। यदि अज्ञान से कर्मबंध हो तो नियम से कोई केवली नहीं बन सकता और यदि अल्प ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति हो तो बहुत अज्ञान से बन्ध की प्राप्ति भी होगी। इन एकान्त मतों का निराकरण करते हुए स्वामी समन्तभद्र
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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