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________________ जैनविद्या 18 से सम्बोधित किया है। इसी प्रकार शुभचन्द्राचार्य, वर्धमानसूरि, महाकवि वादीभसिंह, मंगराज, ब्रह्मअजित, अकलंकदेव एवं आचार्य विद्यानन्द ने अपने ग्रंथों में समन्तभद्र को नमनकर उनकी स्तुति की है। भगवान महावीर के शासन में, गौतम गणधर के बाद स्वामी समन्तभद्र ही ऐसे आचार्य हैं जिन्होंने जैन न्याय-सिद्धान्त को प्रतिष्ठापित किया और स्याद्वाद चिह्नित महावीर वाणी को केवलज्ञान के अंश के रूप में प्रमाणिकता एवं गरिमा प्रदान की। आत्म साधना, प्रखर दार्शनिक एवं विद्वत्तापूर्ण रचनाओं तथा अनेकान्त दर्शन के प्रचार-प्रसार में स्वामी समन्तभद्र के अनुपम-अद्भुत योगदान के कारण उन्हें सदैव स्मरण किया जाता रहेगा। समन्तभद्र का जीवन-परिचय स्वामी समन्तभद्र ईसा की दूसरी शताब्दि के मूलसंघ से सम्बन्धित प्रभावक आचार्य हैं । जैनेन्द्र कोष के अनुसार उनका जीवन काल 120 से 185 ईसवी है। आचार्य कुन्दकुन्द के बाद मूलसंघ दो शाखाओं में विभक्त हो गया। एक शाखा उमास्वामी के आचार्यत्व में आगे बढ़ी और दूसरी शाखा वादिराज समन्तभद्र के आचार्यत्व में पनपी । सुप्रसिद्ध बौद्धगुरु पात्रकेशरी ने 'देवागम स्रोत' पढ़कर, समझकर इस शाखा में दीक्षा ग्रहण की थी। आचार्य अकलंक देव भी इसी शाखा से सम्बद्ध थे। • स्वामी समन्तभद्र के माता-पिता आदि का नाम स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है। फिर भी, श्रवणवेलगोल में उपलब्ध आप्तमीमांसा की एक ताड़पत्रीय प्रति के अनुसार समन्तभद्र फणिमण्डल के अन्तर्गत उरगपुर के क्षत्रिय राजा के पुत्र थे।) उरगपुर चोल राजाओं की प्राचीन ऐतिहासिक राजधानी रही है। पुरानी त्रिचिनापोली भी इसी को कहते हैं। कन्नड़ भाषा की 'राजावली कथे' के अनुसार समन्तभद्र का जन्म उत्पलिका ग्राम में हुआ था। स्तुतिविद्या के अंतिम पद के अनुसार आपका पूर्वनाम शान्ति वर्मा था। यह नाम राजघरानों जैसा है। कदम्ब, गंग और पल्लव राजवंशों में अनेक राजा बर्मान्त नामसहित हुए। कदम्बों में भी शांतिवर्मा नाम का एक राजा हुआ था । समन्तभद्र के माता-पिता, गुरु, शिक्षा-स्थान आदि के सम्बन्ध में शोध-खोज आवश्यक है। स्वामी समन्तभद्र बहुमुखी भद्र थे। भद्रता उनके व्यक्तित्व का प्रमुख गुण था। वे महान योगी, त्यागी, तपस्वी एवं तत्वज्ञानी थे। वे महा-वादी, तर्क-पटु एवं परीक्षा-प्रधानी थे। उन्होंने सर्वज्ञ-अभाववादी मीमांसक, भावैकवादी सांख्य, एकान्त पर्यायवादी एवं क्षणिकवादी बौद्ध, सर्वथा उभयवादी वैशेषिक एवं नास्तिकवादी चार्वाक के एकान्त दर्शन की अपूर्णता सार्वजनिकरूप से सिद्धकर जन-मन में अरहंत भगवान के अनेकान्त दर्शन एवं स्याद्वाद् को प्रतिष्ठापित किया। अपने बहुमुखी तत्वज्ञान, वाकपटुता, सहज आकर्षण, भाषाधिकार, शुद्ध अंत:करण, निर्मल-पवित्र जीवन यात्रा एवं आत्मवैभव द्वारा उन्होंने एकान्तवादियों के अज्ञान अंधकार को दूरकर उन्हें आत्मज्ञानी बनाया। समन्तभद्र ने पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण के प्रायः सभी मुख्य स्थानों की निर्भीकतापूर्वक यात्रा की और जनता को जैन-दर्शन का रहस्य समझाया। सत्य पर अटूट विश्वास करनेवाला सत्य का ज्ञाता ही निर्भीकतापूर्वक सत्य का प्रभावपूर्ण उद्घाटन कर सकता है,यह स्वामी समन्तभद्र के जीवन-चरित्र से प्रकट होता है। लौकिक लोकहित की साधना और सत्य अभिव्यक्ति विपरीतगामी है।
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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