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________________ जैनविद्या 18 किया है। इस श्रावकाचार में 150 श्लोक हैं जिनमें सम्यग्दर्शन का स्वरूप, सच्चे देव-शास्त्र और गुरु का स्वरूप बताकर सम्यग्ज्ञान और उसके अंगों को बताया है। सम्यक् चारित्र में व्रती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का, बारह व्रतों का, उनके 60 अतिचारों का, सम्यग्दर्शन के पांच और सल्लेखना के पांच अतिचारों का वर्णन किया है।) अन्त में सम्यग्दर्शनरूप लक्ष्मी की प्राप्ति की प्रार्थना करते हुए ग्रंथ को समाप्त किया है। यह ग्रंथ श्रावकों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। प्रस्तुत श्रावकाचार में वर्द्धमान भगवान को नमस्कार करके मंगलाचरण किया है जिसको प्रायः सभी स्वाध्याय-प्रेमी मंगलाचरण के रूप में प्राथमिकता देकर शास्त्र प्रारम्भ करते हैं - नमः श्रीवर्द्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यद्विधा दर्पणायते॥1॥ - मैं उस भगवान महावीर को नमस्कार करता हूँ जिन्होंने अन्तरंग एवं बहिरंग-रूप समस्त पापों को नाश कर दिया है तथा जिनका केवलज्ञान लोकसहित अलोक को दर्पण-सदृश देखता है। ग्रंथ के बनाने का उद्देश्य और धर्म का सामान्य लक्षण इस प्रकार बताया है - देशयामि समीचीनं धर्म कर्म निवर्हणम् । संसारदुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥2॥ स्वामी समन्तभद्र कहते हैं कि मैं उस समीचीन धर्म को कहता हूँ जो संसार के जीवों को कर्मजनित दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख में स्थापित करता है। पुनः धर्म का विशेष लक्षण (पूर्वाचार्यों द्वारा या तीर्थंकरों द्वारा कथित) - सदृष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्म-धर्मेश्वरा विदुः। यदीय प्रत्यनीकानि, भवन्ति भवपद्धतिः ॥3॥ ईश्वर/तीर्थंकरों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र को धर्म का लक्षण बताया है। इससे विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को संसार के दुःखों में फंसानेवाली भव की (संसार की) पद्धति बताया है। सच्चे देव-शास्त्र और गुरु का तीन मूढ़तारहित, आठ मदरहित और आठ अंगोंसहित श्रद्धान करना सम्यगदर्शन है। सच्चा देव (आप्त) अठारह दोषरहित, वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होता है। इनके बिना सच्चा आप्तपन नहीं होता। क्षुधा, तृषा, जरा, रोग, जन्म, मरण, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह, आश्चर्य, अरति, खेद, शोक, निद्रा, चिंता, स्वेद इस प्रकार अठारह दोष जिसमें नहीं होते वह वीतराग कहलाता है। सच्चा शास्त्र वह है जो सच्चे देव का कहा हुआ हो; जो प्रत्यक्ष, अनुमान आदि के द्वारा खण्डित न किया जा सके तथा यथार्थ तत्व का उपदेष्टा हो और मिथ्यामार्ग को खण्डित करनेवाला हो। सच्चे गुरु
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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