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________________ जैनविद्या 18 सहारा मानते थे। आप्तमीमांसा/देवागम स्तोत्र आप्तमीमांसा आचार्य समन्तभद्र की अनुपम कृति है। आचार्य ने इसमें जैन दर्शन के गूढ़ तत्वों का युक्तियुक्त विवेचन किया है। इसकी विस्तृत टीका स्याद्वाद-विद्यापति आचार्य विद्यानन्दी ने ‘अष्टसहस्त्री' के नाम से रची है जो जैन दर्शन का उत्कृष्ट तर्कसंगत ग्रंथ है। इसी पर तार्किक आचार्य-शिरोमणि अकलंक स्वामी ने ‘अष्टशती' टीका रची है जो विद्वानों का परम श्रद्धेय ग्रंथ है। आप्तमीमांसा की टीका में आचार्य वसुनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्ती स्वामी समन्तभद्र के मनोगत भावों को इस प्रकार चित्रित करते हैं कि हे भट्टारक! संस्तवोनाम महात्म्याधिक्य कथनं, त्वदीय च महात्म्यमतीन्द्रिय मम प्रत्यक्षागोचर, अतः कथं मया स्तूयसे? हे भगवान, गुणों की अधिकता करके गुणगान करना स्तुति कही जाती है। आपके गुण अतीन्द्रिय हैं, मैं आपकी स्तुति कैसे कर सकता हूँ ? इस पर मानो भगवान ने उत्तर दिया हो कि “ननु भोवत्स यथान्ये देवागमदिहेतोर्मम माहात्म्यमवबुध्य स्तवं कुर्वन्ति तथा त्वं किं न कुरुषे ? अर्थात् दूसरे लोग देवों का आगमन, पुष्पवृष्टि, आदि बाह्य अतिशयों के कारण मेरे महत्व को जानकर मेरा स्तवन करते हैं, उस प्रकार तुम क्यों नहीं करते ? इस प्रकार कथन करनेवाले भगवान जिनेन्द्र को अपने मनोमन्दिर में कल्पना करके परीक्षा-प्रधानी तार्किक के रूप में आचार्य कहते हैं कि मुझ तार्किक के चित्त में देवागमादि चमत्कारों के कारण आपमें महानता की कल्पना नहीं होती इसी भावना को उन्होंने अपने देवागम स्तोत्र में दर्शाया है - देवागमनभोयान-चामरादि-विभूतयः । मायाविष्वपिदृश्यन्ते नातस्त्वमसिनो महान्॥1॥ - देवों का आगमन, आकाश में गमन, छत्र, चमर इत्यादि विभूति का होना आदि चिह्न तो हे नाथ, मायावियों में भी देखे जाते हैं। इसलिये इन चिह्नों से आप हमारे जैसे परीक्षा-प्रधानियों की दृष्टि में महान्, पूज्य नहीं हो सकते हैं। इस पर मानो भगवान ने कहा कि इनके अतिरिक्त मेरे में अन्य विशेषताएं भी तो हैं, यथा - अध्यात्म बहिरप्येषः विग्रहादिमहोदयः । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रागादिमत्सु सः ॥2॥ मेरे शरीर की विशेषताएं हैं - मेरे शरीर में कभी पसीना नहीं आता, न मुझे भूख-प्यास लगती है, बुढ़ापा और अपमृत्यु भी नहीं आती, यह मेरे शरीर का अन्तरंग महोदय है । देवों के द्वारा पुष्पवृष्टि, गंधोदक-वृष्टि होना बहिरंग महोदय (अतिशय) हैं। इस प्रकार ये अन्तरंग और बहिरंग अतिशय सत्य हैं और दिव्य हैं जो मायावियों और इन्द्रजालियों में नहीं पाये जाते। इनके अतिरिक्त ये अतिशय मनुष्यों तथा इन्द्र-चक्रवर्ती में भी नहीं होते । अतः ये सत्य और दिव्य ही हैं। किन्तु हे भगवान्, ये अतिशय तो रागादिमान् देवों में भी पाये जाते हैं। अतः आप इन अंतरंग एवं बहिरंग अतिशयों के कारण भी पूज्य नहीं हो सकते। इस पर पुनः भगवान कह रहे हैं कि मेरे में तीर्थंकरपना है जो अन्य किसी में नहीं पाया जाता
SR No.524765
Book TitleJain Vidya 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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