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________________ जैनविद्या 14-15 89 1.8 (जीव-वध निषेधात्मक उपदेश) तुस सभी जीवों पर दया करो- यह जिनेन्द्र-वचन (आज्ञा) हे जीव ! हृदय में धारण करो। किसी भी पशु या मनुष्य का भोजन मत करो। अपने समान पर की रक्षा करो। जीवघात का हृदय में चिन्तन न करो और न मारने का वचन बोलो। स्वयं भी किसी का घात मत करो। इस प्रकार मन, वचन और काय तीनों से जीव-समूह को पालो। दूसरे के गालियाँ देने या घात करने पर भी क्षमा करो। उठते हुए क्रोधानल का उपशमन करो। क्रोध से एकाएक दूसरे का घात मत करो। क्रोध के समय धूर्तों की बन्धुओं के समान गणना करो। मान कषायवश स्वंय को मेरु पर्वत के समान बड़ा और दूसरों को तिनके के समान (तुच्छ) मत समझो।छलबल करके लोगों को मत ठगो और लोभासक्त मन से हिंसा मत करो। घर, ग्राम, नगर, वन मत जलाओ।दूसरों का वध करते हुए पर श्रद्धान मत करो। जन पीड़ाकारी अनुमति नहीं करो। विस्तार (पूर्वक कहने) से क्या ? हिंसा का त्याग करो। पत्ता- जो हिंसा-त्यागी है (वह) बुधजनों द्वारा पूजा जाता है। धर्म तीनों लोकों को प्रिय है। वह पापों का उन्मूलन करके सांसारिक दु:खों का निवारक है। (उसे) समता परिणामों से (धारण) कीजिए ।8। 1.9 (जीव-भेद एवं अहिंसक-स्वभाव-स्वरूप) संसार में जो विविध प्रकार के जीव स्थित हैं वे दो प्रकार के हैं - त्रस और स्थावर । कर्मवश एकेन्द्रिय (जीव) स्थावर और दो, तीन, चार तथा पाँच इन्द्रियोंवाले त्रस (जीव) हैं। जिसके सम्पूर्ण (हिंसा) निवृत्ति संभव नहीं होती है वह त्रस हिंसा से विरत होता है। स्थावर जीवों का भी निरर्थक घात नहीं करता है। प्रथम अणुव्रत दया विधि मय है। उत्साहित मन से (कार्य) आरंभ मत करो। किन्तु कार्य करते हुए जन के प्रति विनत रहो। क्रूर भाव मत करो और न वक्रबुद्धि करो। मन सरल करके सद्भावों में रत रहो। उस मनुष्य का परलोक घर है जो विमल चित्त परणति के वश है, सभी जीवों का हित विचारता है। किसी के भी ऊपर दुष्ट बुद्धि नहीं करता है, जन-संतापकारी छेदन, भेदन, बन्धन और दमन-व्यापार नहीं करता है, जन्तु देखकर मार्ग में पैर देता है (और) आचार्य से अहिंसाव्रत रखता है। घत्ता-पर-वंचना त्यागकर और जिनेन्द्र की अर्चन करके (जो) सभी का विश्वास-पात्र होता है, वह उपशान्त मन से लोगों को आनन्दित करते हुए श्रेष्ठ अहिंसा धर्म धारण करता है ।।
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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