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________________ जैनविद्या 14-15 यह नियम है कि जीव जब मिथ्यात्व से हटकर सम्यक्त्व के सम्मुख होता है तो सब कर्मों की स्थिति का अपकर्षण होकर (घटकर) अंत: कोडा-कोडी रह जाती है तथा सब पाप कर्मों का अनुभाग चतु:स्थानिक से घटकर द्विस्थानिक रह जाता है। यदि शुभभाव के कर्म-क्षय होना न माना जाय तो मिथ्यात्व गुणस्थान में कर्मों की सत्तर, चालीस, तीस, बीस, दश कोडा- कोडी की स्थिति का क्षय होकर अंत: कोडा-कोडी रह जाना संभव ही नहीं होता और न पाप कर्मों का अनुभाव चतु:स्थानिक से घटकर द्विस्थानिक हो सकता और ऐसा हुए बिना सम्यग्दर्शन की प्राप्ति ही नहीं होती । तात्पर्य यह है कि शुभ परिणामों के फलस्वरूप पाप व पुण्य कर्मों की स्थिति का क्षय होता है और पाप कर्मों का अनुभाग भी क्षय होता है तथा सम्यग्दर्शन होता है । अत शुभ परिणामों से कर्म-क्षय न मानना न तो कर्म सिद्धान्त सम्मत है न आगम-सम्मत और न युक्तियुक्त | अभिप्राय यह है कि " शुभभावों से कर्म-क्षय होते हैं" श्री वीरसेनाचार्य का यह कथन ही आगमसम्मत व कर्म - सिद्धान्त - सम्मत है । 78 ן जिससे पाप कर्मों का क्षय हो वही साधना है। पुण्य कर्मों के क्षय के लिए किसी भी साधना की आवश्यकता नहीं है और विशुद्धिभाव, संवर, संयम, तप, जप, निर्जरा आदि किसी भी साधना से पुण्य 'अनुभाग का क्षय नहीं होता है प्रत्युत पुण्य का अर्जन होता है, पुण्य के अनुभाग में वृद्धि होती है । अत: जैनागम में कहीं भी पुण्य को क्षय करनेवाली किसी भी साधना का विधान नहीं है, क्योंकि किसी भी साधना में पुण्य का क्षय संभव ही नहीं है। पुण्य के क्षय का मात्र एक ही उपाय है और वह है पाप की वृद्धि । अतः जिन्हें पुण्य का क्षय इष्ट है उन्हें पाप प्रवृत्ति की वृद्धि करनी होगी । तात्पर्य यह है कि कषाय पाप है, अशुभ है, चाहे वह मंद हो या तीव्र । मंद या कम कषाय कम पाप है, तीव्र या अधिक कषाय अधिक पाप है पर है दोनों पाप ही । कषाय में मंदता से आत्मा पवित्र होती है अतः कषाय की मंदता पुण्य है, धर्म है, साधना है। उक्त कषाय की मंदता या कमी होना शुभ है, परन्तु मंद कषाय अर्थात् जो कषाय शेष रह गया है वह शुभ नहीं है। इस रहस्य को न जानने से अनेक उलझनें पैदा हुई हैं। जैसे किसी रोग में कमी होना स्वस्थता की वृद्धि की सूचक है परन्तु जो रोग शेष रह गया है वह स्वस्थता का नहीं अस्वस्थता का ही सूचक है इसी प्रकार कषाय में कमी होना आत्म-विशुद्धि की, स्वभाव की, स्वस्थता की, शुद्धोपयोग की सूचक है परन्तु जो कषाय शेष रह गया है वह विकार का, विभाव का, अस्वस्थता का, अशुद्धोपयोग का, पाप का सूचक है । इसी प्रकार वर्तमान काल में आगम एवं कर्म सिद्धान्त की अधिकांश व्याख्याओं में विकृति आ गई है। अतः विद्वानों से निवेदन है कि धवला, जयधवला, राजवार्तिक आदि टीकाओं एवं उन टीकाओं में उद्धृत प्राचीन गाथाओं पर चिंतन-मनन कर उन (विकृतियों) का संशोधन करने का प्रयास करें। जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थान साधना भावना, ए-9, महावीर उद्यान पथ बजाज नगर, जयपुर-302017
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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