SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या 14-15 नवम्बर 1993-अप्रेल 1994 45 आचार्य वीरसेन और उनका ज्ञानकेन्द्र - आचार्य राजकुमार जैन आचार्य वीरसेन अपने समय के अप्रतिम विद्वान थे। उनका बुद्धि-वैभव अत्यन्त अगाध और पाण्डित्यपूर्ण था। वे सिद्धान्त के पारगामी विद्वान थे। यही कारण है कि उनका पाण्डित्य दिगन्तव्यापी हो गया था। उनकी एक विशेषता यह थी कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती समग्र साहित्य का अध्ययन और अनुशीलन किया था जिसके परिणामस्वरूप वे सिद्धान्त के पारगामी विद्वान हुए और उनका पाण्डित्य विश्व-विश्रुत हुआ। हरिवंशपुराण में उन्हें कवियों का चक्रवर्ती निरूपित किया गया है जिनकी कीर्ति निष्कलङ्क अवभासित है। यथा - जितात्म परलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः । वीरसेनगुरोः कीर्तिरकलङ्कावभासते ॥ 1.39॥ - जिन्होंने अपने और दूसरों के पक्षावलम्बियों को जीत लिया है, जो कवियों के चक्रवर्ती हैं ऐसे गुरु वीरसेन स्वामी की निर्मल कीर्ति प्रकाशित हो रही है। श्री वीरसेन स्वामी के अगाध पाण्डित्य की जितनी व्याख्या की जाय वह अल्प है और सूर्य को दीपक दिखाने के तुल्य है। उन्हें भट्टारक पदवी प्राप्त थी और वे साक्षात् केवली की भांति लौकिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, धार्मिक एवं अन्य समस्त विधाओं के पारगामी थे। उनकी
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy