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________________ जैनविद्या 14-15 ____5.इसी प्रकार वीरसेनाचार्य पुनः ज्ञापकसूत्र, क्षेत्र प्रमाण की अपेक्षा अनन्तान्त लोकप्रमाण मिथ्यादृष्टि जीव राशि का प्रमाण है,' लेते हैं और एक गाथा द्वारा इसे प्रतिबोधित करते हैं - जिस प्रकार कोई प्रस्थ से कोदों के समान सम्पूर्ण बीजों का माप करता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीवराशि की लोक से अर्थात् लोक के प्रदेशों से तुलना करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि प्रमाण लाने के लिए अनन्त लोक होते हैं, अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीवराशि अनन्त लोकप्रमाण है ॥ 22 19 शंकाकार इस पर प्रश्न करता है - 'प्रस्थ से बहिर्भूत पुरुष प्रस्थ से बहिर्भूत बीजों को प्रस्थ के द्वारा मापता है, यह तो युक्त है, परन्तु लोक के भीतर रहनेवाला पुरुष लोक के भीतर रहनेवाली मिथ्यादृष्टि जीवराशि को लोक के द्वारा कैसे माप सकता है?' इसे निर्दोष सिद्ध करने के लिए वीरसेनाचार्य युक्ति देते हैं कि बुद्धि से ही सम्पूर्ण मिथ्यादृष्टि जीव लोक द्वारा मापे जाते हैं। यह कैसे संभव है ? इसका समाधान वीरसेनाचार्य इस प्रकार देते हैं - लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक मिथ्यादृष्टि जीव को निक्षिप्त करके एक लोक हो गया, इस प्रकार मन से संकल्प करना चाहिए। इस प्रकार पुनः पुनः माप करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि अनन्त लोकप्रमाण होती है। यहां एक-एक संवाद और एक-अनेक संवाद की विधियां अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। यह विधि परम्परा से आई प्रतीत होती है; क्योंकि यहां भी इस प्राचीन प्राकृत गाथा को उपयोग करने के लिए उद्धृत किया गया है - लोगागास पदेसे एक्केक्के णिक्खिवेवि तह दिद्धि । एवं गणिज्जगाणे हवंतिलोगा अणंता दु ॥23॥ इस प्रकार नवीं सदी तक गणितीय न्याय की शैली उपर्युक्त रूप में चली आई। 6. इसके पश्चात् ज्ञापक सूत्र है, 'पूर्वोक्त तीनों प्रमाण ही भावप्रमाण हैं ॥5॥' अधिगम और ज्ञान प्रमाण दोनों एकार्थवाची हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल प्रमाण के ज्ञान को भावप्रमाण मान लेने पर उसके मुख्य प्रमाण होने से बिना कहे सिद्धि हो जाती है। भाव प्रमाण बहुवर्णनीय है। हेतुवाद और अहेतुवाद को अवधारण करने में समर्थ शिष्यों का अभाव होने से सूत्र में स्वतंत्ररूप से कथन नहीं है। वस्तुतः परिकर्माष्टक रूप सभी संक्रियाएं उक्त प्रमाण राशियों के साथ भाव द्वारा काल्पनिक रूप से करना संभव है, जैसा परिमित के साथ, वैसा असंख्येय और अनन्त राशियों के साथ ही। जैसे मिथ्यादृष्टि जीवराशि का संपूर्ण पर्यायों में भाग देने पर जो भाग लब्ध हो उसे भागहार रूप से स्थापित कर संपूर्ण पर्यायों के ऊपर खंडित, भाजित, विरलित, अपहृत का कथन भाव प्रमाण की समझ के लिए करना चाहिए। आगे, मिथ्यादृष्टि जीवराशि के विषय में निश्चय करने हेतु पुनः वर्गस्थान में ये संक्रियाएं दिखाना चाहिये जो पुनः गणितीय न्याय का अनन्तात्मक राशियों तक प्रयोग बतलाती हैं - वर्गस्थान में खण्डित, भाजित, विरलित, अपहृत, प्रमाण, कारण, निरुक्ति और विकल्प द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशि का प्रमाण सुनिश्चित करते हैं। इसका विवरण बारम्बार आया है, न केवल अनन्त वरन् असंख्येय राशियों के लिए भी।
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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