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________________ जैनविद्या 14-15 नवम्बर 1993-अप्रेल 1994 27 आचार्य वीरसेन और उनकी कालजयी टीका 'धवला' - डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव प्राचीन ब्राह्मण और श्रमण-काल में आचार्यों द्वारा आकर-ग्रंथों पर जो टीकाएँ लिखी जाती थीं उनमें मूल लेखकों की मूल दृष्टि से भिन्न अपनी मूल दृष्टि टीकाकारों द्वारा प्रस्तुत की जाती थी, इसलिए उनकी टीकाएँ स्वतन्त्र (टीका) ग्रन्थ बन जाती थीं। इस दृष्टि से टीकाकार भी एक ग्रन्थकार के रूप में ही मानार्ह होते थे। इसी प्रकार आचार्य वीरसेन (9वीं शती, ईसवीसन् 816) द्वारा लिखी गई 'धवला' टीका ने एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की इयत्ता आयत्त कर ली है और वीरसेनाचार्य एक ग्रन्थकार आचार्य के रूप में शाश्वत्प्रतिष्ठ हो गये हैं। दिगम्बर आम्नाय के कर्म सिद्धान्त-विषयक ग्रन्थों में षट्खण्डागम कूटस्थ है। प्राकृतनिबद्ध इस ग्रन्थ का आविर्भाव मूल द्वादशांग श्रुतस्कन्ध से हुआ है। नाम की अन्वर्थता के अनुकूल इस जैनागम के छह खण्ड हैं - 1. जीवट्ठाण, 2. खुद्दाबन्ध, 3. बन्धस्वामित्व-विचय, 4. वेदना, 5. वर्गणा और 6. महाबन्ध। इनमें मूल ग्रन्थ के पाँच खण्ड प्राकृत भाषा में सूत्रनिबद्ध हैं। आचार्य जिनेन्द्र वर्णी द्वारा सम्पादित 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' के अनुसार - प्रथम खण्ड के सूत्र आचार्य पुष्पदन्त (ईसवी सन् की प्रथम-द्वितीय शती) द्वारा प्रणीत हैं। शेष चार खण्डों के पे सूत्र आचार्य पुष्पदन्त के समकालीन आचार्य भूतबलि द्वारा रचित हैं। इस आगम ग्रन्थ का छठा खण्ड सविस्तररूप में आचार्य भूतबलि ने ही रचा है। इस ग्रन्थ के प्रथम पाँच खण्डों पर तो अनेक टीकाएँ उपलब्ध हैं, परन्तु छठे खण्ड पर एकमात्र आचार्य वीरसेन की ही टीका उपलब्ध
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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