SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या 14-15 23 कालगते कियात्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी । श्रीमानेलाचार्यों वभूव सिद्धान्ततत्वज्ञः ॥ 177॥ तस्य समीवे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः । उपरितम निबंधनाद्यधिकारानष्ट च लिलेख ॥178॥ आगत्य चित्रकूटात्ततः स भगवान्गुरोरनुज्ञानात् । वाटग्रामे चात्रानतेन्द्रकृत जिनगृहे स्थितवा ॥ 179॥ व्याख्याप्रज्ञप्तिमवाप्य पूर्ववाटखण्डतस्ततस्तस्मिन् । उपरितम निबन्धानाधधिकारैरष्टादशाविकल्पैः ॥ 180॥ सत्कर्मनामधेयं षष्ठखण्डं विधाय संक्षिप्य । इति षण्णां खण्डानां ग्रंथ सहस्त्रैद्विसप्तत्या ॥ 181॥ प्राकृत संस्कृतभाषामिश्रां टीकां विलिख्य धवलाख्याम् । जयधवलां च कषाय प्राभृतके चतसृणां विभक्तीनाम् ॥ 182॥ विशंति सहस्रसदग्रंथरचनया संयुतां विरच्य दिवम् । यतस्ततः पुनस्तच्छिष्यो जिनसेन गुरुनामा ॥ 183॥ तच्छेषं चत्वारिंशता सहस्त्रैः समापितवान् । जयधवलेवं षष्ठिसहस्त्र ग्रंथोऽभवट्टीका ॥184॥ - श्रुतावतार आचार्य वीरसेन स्वामी के रचनाकाल और जीवनकाल के विषय में विशिष्ट शोध करते हुए श्रद्धेय स्व. नाथूरामजी प्रेमी ने अपनी विद्वत्रत्नमाला' शीर्षक लेखमाला में भगवज्जिसेनाचार्य के समय का उल्लेख विस्तारपूर्वक किया है, उसी के आधार पर आचार्य वीरसेन स्वामी की आयु 80 वर्ष के लगभग अनुमानित की जाती है। उनका जीवनकाल शक सं. 665 से 745 तक प्रमाणित होता है। इस विषय में बहुत खोज, विचार-विमर्श हो चुका है अतः विशेष चर्चा की आवश्यकता अनुभव नहीं की जाती है। आचार्य श्री वीरसेन स्वामी ने अपनी टीका का नाम 'धवला' क्यों सुनिश्चित किया इस पर कुछ विचार-विमर्श किसी ने नहीं किया अत: यहाँ दो अनुमान प्रस्तुत किये जा रहे हैं - पहला तो यह कि यह धवल (शुक्ल) पक्ष में समाप्त हुई थी अतः उन्हें 'धवला' शब्द उपयुक्त जंचा हो; दूसरा अनुमान है - महाराजा अमोघवर्ष प्रथम जिनके शासनकाल में यह टीका हुई थी। वे 'अतिशय धवल' उपाधि से अलंकृत थे अतः उनकी इस उत्कृष्ट उपाधि से ही आचार्य श्री को अपनी टीका का नाम 'धवला' देना उपयुक्त जंचा हो। उदाहरणार्थ - स्व. डॉ. आ. ने. उपाध्ये ने जब अपना मकान कोल्हापुर में बनवाया था तो उसका नाम 'धवला' रखा जिसके पीछे उनकी इस धवला टीका के प्रकाशन में सहयोग व इसकी विशिष्टता से प्रभावित सद्भावना व उत्कृष्ट विचार ही कारण रहा था।
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy