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________________ जैनविद्या 14-15 95 1.14 (दैनिक व्यवहार में बोलचाल संबंधी चिन्तन) अज्ञानता में कार्य होने की संभावना की जावे, सहसा किसी को भी दोष न दिया जावे। देखभालकर वचन बोला जावे (और) भलीप्रकार परीक्षा करके सभी कार्य किये जावें। जो जैसा कानों से सुना जावे वह वैसा कभी भी नहीं कहा जावे। अपनी आँखों से पराये दोष देखकर गाये न जावें, टैंके जावें, दुर्वचनरूपी बाण से किसी को भी न घाता जावे। कपटमय भाषा बोलनेवाले को कोई भी क्षमा नहीं करता है। अन्य कुसंग की खोज न की जावे। किसी को फिर बोलने न दिया जावे अथवा यदि किसी के द्वारा कुछ विनाश किया जाता है (तो) वह अधिक सन्तापित न किया जावे। किसी के द्वारा बुरा लज्जास्पद उत्तर दिया जावे तो उस पर उछलना ठीक नहीं। हृदय में किसी का भी बुरा धारण न किया जावे। कथित कार्य में अतिग्रहण न किया जावे। भावदोषकारी वचन भी त्यागे जावें। संतजनों से कटु वचन न बोला जावे। घत्ता - गत जनों द्वारा पचाया गया असत्य वचन बुधजनों द्वारा सदैव त्यागा जावे। छलकपट त्यागकर वात्सल्य स्वभावी वे संसार में निज-परहित के लिए बोलते हैं । 141 1.15 (परकृत अभद्र व्यवहारकालीन कर्तव्य) अथवा यदि कोई तुम्हें दोष देता है और होनी-अनहोनी कहता है, अथवा निष्ठुर दुर्वचनों से संतप्त करता है, मर्म-छेदी गालियाँ देता है, घरवाली-कड़वे अक्षरों से निरुत्तर कर देती है (वह) निश्चय से भलीप्रकार भरण-पोषण चाहती है। दुष्ट-पुत्र मन में कुपित होकर विरुद्ध वचन बोलते हुए बुरी तरह बाँधकर बाहर निकाल देता है अथवा इतर कोई भी उपहास करता है यदि माता को विरुद्ध कहता है, यदि घर के लोग तुझे छिपा लेते हैं, राजा के चाटुकार मारने ले जाते हैं, इस प्रकार (ये बाधाएँ) पूर्वोपार्जित पापों से प्राप्त होती हैं। सम परिणामों से सभी को क्षमा किया जावे। पराये दुस्सह्य कठोर वचन सहते हुए मनुष्य के महान् पापों का क्षय होता है। आगे (उन) दुःखों और सुखों का विस्तार स्रोत प्रथम स्वर्ग पश्चात् पंचम गति (होता है) अथवा (जो) क्षमा नहीं करता है (वह) क्रोधकृत कर्म-परम्परा से भंयकर दुःख सहता है । ___घत्ता - गर्वपूर्वक या मानरहित होकर सभी जीवों को छोड़कर मिथ्यालाप न कीजिए। विशेषकर दूसरों पर कृपा करने से (उन्हें) क्लेश-मुक्त करने से अपने को सभी के द्वारा क्षमा किया जाता है । 15।
SR No.524762
Book TitleJain Vidya 14 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1994
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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