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________________ बनविचा-13 1 बनविद्या-13 ] अप्रेल-1993 [ 71 आचार्य अमितगति की प्रासंगिकता: पर्यावरणीय परिप्रेक्ष्य में -श्रीमती शकुन्तला जैन वर्तमान में विश्व के सामने पर्यावरण शुद्धि का प्रश्न सर्वाधिक रूप से चचित है। हाल ही में विश्व के प्रमुख ही नहीं प्रायः सब ही राष्ट्रों का एक वृहद सम्मेलन रिया में होकर चुका है जिसमें विश्व के विभिन्न नेतानों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये हैं। __ शब्द-शास्त्र की दृष्टि से 'पर्यावरण' एक यौगिक शब्द है जो 'परि' और 'प्रावरण' इन दो शब्दों के योग से बना है, जिसका अर्थ है हमारे चारों ओर का आवरण । अर्थात् हम अपना जीवन यापन करते हुए जिन सजीव और निर्जीव वस्तुओं के सम्पर्क में प्राते हैं वे ही हमारे लिए आवरण हैं और उनकी शूद्धि और प्रशद्धि पर हमारे जीवन का उत्थान और पतन, स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य, सुख और दुःख, हानि और लाभ आदि निर्भर करते हैं । स्वभावतः हमारे प्राचीन ऋषियों, मनीषियों और चिन्तकों ने बहुत प्राचीनकाल से ही इस पर विचार करना प्रारम्भ कर दिया था। जैनाचार्य भी इस विषय में पीछे नहीं रहे। उन्होंने मानव की अपनी व्यक्तिगत एवं सामाजिक विवशताओं को ध्यान में रखते हुए इस दृष्टि से भी विचार किया कि वह अपने जीवन को इस प्रकार ढाले कि विश्व का पर्यावरण कम से कम दूषित एव अधिक से अधिक शुद्ध एवं निरापद बना रहे । गृहस्थों के लिए उन्होंने जो बारह व्रतों के पालन का विधान किया है उनमें अनर्थदण्ड नामक व्रत का उद्देश्य यही है । वाचक मुख्य प्राचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र आदि महान प्राचार्यों में आचार्य अमितगति ने भी अपने श्रावकाचार के षष्ठ परिच्छेद गत श्लोक 80-841 तक में
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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