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[ जनविद्या-13
इन्हीं महात्मा के शिष्य अमितगति हुए, जो मोक्षार्थियों में अग्रणी थे। इन्होंने ही अशेष कर्मसमूह के स्वरूप-निरूपण के लिए इस शास्त्र, अर्थात् 'पंचसंग्रह' ग्रन्थ को बनाया ।
दिगम्बर-आम्नाय में 'पंचसंग्रह' नाम के कई ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । 'जनेन्द्रसिद्धान्तकोश' के अनुसार दिगम्बरों का 'प्राकृत-पंचसंग्रह' सबसे प्राचीन है। श्वेताम्बर साहित्य में भी स्वोपज्ञवृत्ति-सहित 'प्राकृत-पंचसंग्रह' का उल्लेख प्राप्त होता है। इस पर 'मलयागिरि' नाम की संस्कृत-टीका भी मिलती है। पुनः दिगम्बर-साहित्य में 'संस्कृत पंचसंग्रह' के कतिपय संस्करणों की चर्चा हुई है । इनमें एक संस्करण तो श्रीपालसुत श्रीउट्टा (विक्रम की सत्रहवीं शती) द्वारा प्रस्तुत हुआ है और अन्य एक संस्करण के प्रस्तोता सुमतिकीत्ति भट्टारक (ईसा की सोलहवीं शती) है । 'प्राकृत-पंचसंग्रह' की तो प्राकृत में ही चूणिका-शैली में वृत्ति भी लिखी गई है। स्पष्ट है कि कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादक यह 'पंचसंग्रह' जैनाचार्यों द्वारा सम्यक् अनुशीलित तथा जैनमियों द्वारा अतिशय पूजित एक अपूर्व दर्शन-ग्रन्थ है । आचार्य अमितगति ने 'संस्कृत-पंचसंग्रह' के माध्यम से लोकोपयोगी कर्ममीमांसा प्रस्तुत कर व्यापक विद्वत्प्रियता और विपुल जन-समादर प्रायत्त किया था, इसमें सन्देह नहीं ।
__ जैन विद्वानों का मत है कि प्राचार्य नेमिचन्द सिद्धान्तचक्रवर्ती (दसवीं-ग्यारहवीं शती) द्वारा प्रणीत 'प्राकृत-गोम्मटसार' अमितगति के 'संस्कृत पंचसंग्रह' का पर्याय ग्रन्थ है । 'गोम्मटसार' द्वारा जिस कर्मकाण्ड का प्रतिपादन किया गया था, 'पंचसंग्रह' में उसी कर्मसिद्धान्त का समानान्तर विकास प्रस्तुत हुआ है। इसीलिए कहा जाता है कि 'गोम्मटसार' में कर्मसिद्धान्त का जो वर्णन है, वही 'पंचसंग्रह' में है। केवल वर्णन-शैली की भिन्नता है। यह वर्णनशैली सातिशय सरल है । 'गोम्मटसार' में गणित प्रसंग जहाँ जटिल हो मया है, वहीं यह जटिलता 'पंचसंग्रह' में बहुत स्वल्प मात्रा में है । 'गोम्मटसार' में विद्वानों . को जहाँ अत्यधिक बौद्धिक व्यायाम की आकुलता से गुजरना पड़ता है, वहाँ इसमें उन्हें सुगमता का आनन्द मिलता है। जिस प्रकार 'राजवात्तिक' और 'श्लोकवात्तिक' ग्रन्थों के विषय में प्रवेश के लिए पहले 'सर्वार्थसिद्धि' का अध्ययन अपेक्षित है, उसी प्रकार 'गोम्मटसार' में प्रवेश के लिए पहले 'पंचसंग्रह' का अनुशीलन अनिवार्य है ।
प्रस्तुत 'पंचसंग्रह' का मूल श्लोकात्मक या पद्यात्मक है। ये श्लोक विविध छन्दों में प्रारचित हैं। कुछ श्लोकों के नीचे कहीं-कहीं गद्यात्मक विवृत्ति भी है जो किसी परवर्ती वृत्तिकार की रचना मानी जाती है। इस ग्रन्थ के विषय कुल छह परिच्छेदों में उपन्यस्त हुए हैं। प्रथम परिच्छेद (के कुल 354 श्लोकों) में बन्धक, अर्थात् कर्म का बन्धकरनेवाले अशुद्ध संसारी जीव की विवेचना विशुद्ध रूप से की गई है । द्वितीय परिच्छेद (कुल 48 श्लोक) में बध्यमान, अर्थात् कर्मबन्ध के योग्य एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों का वर्णन है । तृतीय परिच्छेद (कुल 106 श्लोक) कर्म-बन्ध, कर्मोदय और कर्मसत्ता के क्रमिक उच्छेद का सविस्तार वर्णन करता है। चतुर्थ परिच्छेद (कुल 375 श्लोक) में कर्मबन्ध के कारणों को विस्तार से