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________________ 50 ] [ जनविद्या-13 है। इस अन्धकार से मुक्त होने के लिए धर्म की ज्योति प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है (द्वितीय परिच्छेद)। सृष्टि कर्तृत्व खण्डन-सृष्टि-कर्तृत्व को जैनाचार्यों ने जोरदार खण्डन का विषय बनाया । जैनदर्शन और न्याय के प्रकाण्ड चिन्तकों ने अपने हर ग्रन्थ में किसी न किसी रूप में इस सिद्धान्त की मीमांसा की है और कहा है कि यदि कोई सृष्टि का कर्ता-धर्ता है तो वह राग के बिना यह कार्य नहीं कर सकता और तब उस स्थिति में, राग के सद्भाव में कोई न ईश्वर हो सकता है और न सर्वज्ञ । सृष्टि-कर्तृत्व के खण्डन के साथ ही हम प्राप्त के स्वरूप की भी चर्चा कर सकते हैं । अमितगति ने 12वें अध्याय में प्राप्त के स्वरूप की अच्छी मीमांसा की है । उन्होंने क्षुधा, तृषा, भय, द्वेष, राग, मोह, मद, रोग, चिन्ता, जन्म, जरा, मृत्यु, विषाद, विस्मय, रति, स्वेद, खेद, निद्रा ये अठारह दोष दुःख के कारण माने हैं और इन अठारह दोषों से मुक्त व्यक्ति ही प्राप्त हो सकता है। और इनसे निर्मुक्त प्राप्त के स्वरूप को प्रस्थापित किया है । वह स्वरूप है -निर्दोष परमविशुद्ध केवलज्ञानी वीतराग परमात्मा । प्राचार्य अमितगति ने कहा है कि हिंसा को धर्म का कारण कैसे माना जाए ? याज्ञिकी हिंसा को हिंसा नहीं माने और बलि द्वारा मारे गये जीवों को स्वर्ग में पहुंचाने की बात कहें-यह कहां तक ठीक है ? जिस स्वर्ग जैसी उत्तम गति को संसारी जीव धर्माचरण, नियम और ध्यान आदि कठिन तपस्याओं द्वारा प्राप्त करते हैं वह हिंसा के माध्यम से कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? हिंसक साधनों से अहिंसक साध्य की प्राप्ति कैसे हो सकती है (16.6.22)? जातिवाद का खण्डन-जैनधर्म अहिंसा और समता का पुजारी रहा है। सदाचार उसकी आधारशिला है। प्रारम्भ से ही उसने स्वयंकृत कर्मों को ऊँच-नीच की आधारशिला स्वीकार की है। उसके अनुसार किसी जाति विशेष में उत्पन्न व्यक्ति बिना सदाचरण के ऊँचा नहीं माना जा सकता। प्राचार्य जिनसेन के शब्दों का अनुगमन करते हुए अमितगति ने कहा कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, ये चारों एक मनुष्य जाति का समूह है, प्राचार के आधार पर भले ही इनका विभाजन कर दिया जाय । वस्तुतः जिस जाति में संयम, नियम, शील, तप, दान, जितेन्द्रियता और दयादि तत्व विद्यमान हों उसी जाति को पूजनीय माना जाता है । शील-संयम आदि का पालन करनेवाले तथाकथित नीच जाति में उत्पन्न लोग भी स्वर्ग में जाते हैं और इन व्रतों से रहित कुलीन भी नरक में पहुंच जाते हैं इसीलिए जातिवाद मात्र एक अहं है, आचरण की ही पूजा होनी चाहिए । (16.23-33)।
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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