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________________ 84 जैनविद्या अपने आत्मविकास के प्रारम्भिक चरणों में ही इस व्याकुलता की उपेक्षा करके भोजन, जल, निद्रा आदि का पूर्णतया परित्याग कर दे तो उसके अजीव तत्त्व-शरीर, बाहरी परिस्थितियों आदि से सम्बन्धित बन्धनों के कारण उसकी समस्त शान्ति तथा ज्ञानात्मक और क्रियात्मक शक्तियाँ लुप्त हो जाती हैं। इसलिए एक सम्यग्दृष्टि व्यक्ति जल में कमलवत् निर्लिप्त भाव से जीवनयापन करता है। वह मोक्षमार्ग के प्रारम्भिक चरणों में कमाता भी है. खाता भी है, सोता भी है, मनोरंजन के साधनों का उपयोग भी करता है तथा सामाजिक जीवन भी व्यतीत करता है। यह सब करते हुए भी वह इन सब कार्यों का अतिक्रमण कर अपना अन्य-निरपेक्ष स्वाभाविक स्वरूप प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्नरत रहता है। एक सम्यग्दृष्टि व्यक्ति का लक्ष्य अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप को प्राप्त करना होता है। इसके लिए वह अन्तरात्मा बन कर अपने अन्दर प्रकट हो रही कमजोरियों और विकारों का निरन्तर पालोचन करता है तथा अपने परमात्मस्वरूप की भावना द्वारा उन विकारों और कमजोरियों के मूल में विद्यमान मिथ्या मान्यताओं को समाप्त करके उनसे मुक्त होता है । उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति की जीवनरक्षा में सहायक बनने पर व्यक्ति में यह अभिमान उत्पन्न होता है कि मैंने उसे बचाया । सम्यग्दृष्टि व्यक्ति आत्मनिरीक्षण करता हुआ अपने अन्दर प्रकट हो रहे इस भाव को जानता है। वह इस भाव के साथ अपना तादात्म्य स्थापित नहीं करता बल्कि आत्मविश्लेषण द्वारा इस भाव के स्वरूप और कारणों को जानता है तथा तत्त्व-चिन्तन द्वारा इस भाव की उपादान योग्यता के रूप में विद्यमान इस मिथ्या धारणा को समाप्त करता है कि यह अभिमान मेरा स्वरूप न होकर चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न आगन्तुक भाव है तथा इसका एक अन्य कारण मेरी यह धारणा भी है कि इस व्यक्ति की जीवनरक्षा का एकमात्र कारण मैं ही हूँ, यह मेरा भ्रम है। इस व्यक्ति के जीवित रहने का प्रमुख कारण इसके आयु कर्म का सद्भाव है । यदि वह समाप्त हो जाता तो इस व्यक्ति को मैं ही क्या अन्य कोई भी नहीं बचा सकता था ।15 सम्यग्दृष्टि व्यक्ति को क्रोध आने पर वह क्रोध पर्याय के स्वरूप को जानता हुआ यह विचार करता है कि चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न हो रही मेरी क्रोध पर्याय का एक कारण मेरी यह धारणा भी है-'इसने मुझे हानि पहुँचायी।' लेकिन मैं तो एक शाश्वत, अजर-अमर, ज्ञानदर्शनसुखवीर्यमय प्रात्मा हूँ। मेरा यह स्वरूप ही मेरा अपना है, इसके अतिरिक्त परमाणुमात्र भी मेरा अपना नहीं है । मुझे नष्ट करने की, मेरे ज्ञानदर्शनादि गुणों को हानि पहुंचाने की क्षमता किसी में भी नहीं है तब कोई मेरा नुकसान किस प्रकार कर सकता है। इस प्रकार एक सम्यग्दृष्टि व्यक्ति अन्तरात्मा बनकर निरन्तर आत्मालोचन द्वारा अपनी कमजोरियों और विकारों से युक्त पर्यायों को जानता है तथा अपने शुद्धात्मस्वरूप की अनुभूति और निश्चय द्वारा इन विकारों से ऊपर उठकर चेतना की निर्मल अवस्थाओं को प्राप्त करता जाता है। काम, क्रोधादि विकार नशीले पदार्थों के सेवन के समान होते हैं । जिस प्रकार
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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