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________________ 14 जैनविद्या आदि के अतिशय की व्यंजना करने का प्रयोजन भी है। इस प्रकार यहाँ उपचार के सभी नियम घटित होने से उपचार संभव हुआ है । इसी प्रकार 'अन्न ही प्राण है' इस उक्ति में कारण-कार्य सम्बन्ध के आधार पर अन्न पर प्राणों का आरोप है। 'जीव वर्णादिमान् है' इस कथन में. जीव के साथ शरीर का संश्लेष सम्बन्ध होने से शरीर के वर्णादि धर्म जीव पर आरोपित किये गये हैं। अतः ये कथन उपचार हैं । पुद्गल कर्मों का निमित्त होने से जीव पर पुद्गल कर्मों के कृर्तृत्व का आरोप कर 'जीव पुद्गल कर्मों का कर्ता है' ऐसा कहना भी उपचार है। घृतसंयोग के कारण मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कहना भी उपचार है क्योंकि इस कथन में मृत्तिका पर घृतत्व का आरोप है। ____सार यह कि उपचार किसी न किसी वास्तविक सम्बन्ध पर आश्रित होता है, जैसा कि आलापपद्धतिकार ने कहा है-"सोऽपि सम्बन्धाविनाभावः, संश्लेषः सम्बन्धः, परिणामपरिणामिसम्बन्धः श्रद्धाश्रद्धे यसम्बन्धः, ज्ञानज्ञेयसम्बन्धः, चारित्रचर्यासम्बन्धश्चेत्यादिः ।" काव्यशास्त्र में भी सम्बन्धविशेष को ही उपचार का आधार माना गया है, जैसा कि काव्यप्रकाशकार के निम्न शब्दों से स्पष्ट है "क्वचित्तादादुपचारः यथा इन्द्रार्था स्थूणा इन्द्रः । क्वाचित् स्वस्वामिभावात् यथा राजकीयः पुरुषो राजा। क्वचिदवयवावयविभावात् यथा अग्रहस्त इत्यत्राग्रमात्रेऽवयवे हस्तः । क्वचित् तात्कात् यथा अतक्षा तक्षा" (का. प्र, द्वि. पु.) । अर्थात् कहीं तादर्थ्य के कारण उपचार होता है, जैसे- इन्द्र की पूजा के लिए बनायी गई स्थूणा को इन्द्र कहना। कहीं स्वस्वामिसम्बन्ध उपचार का आधार होता है, जैसे-राजा के विशेष कृपापात्र को राजा कहना । कहीं अवयव-अवयविसम्बन्ध के कारण उपचार किया जाता है, जैसे-हाथ के केवल अग्रभाग के लिए हस्त शब्द का प्रयोग करना । कहीं तात्कर्म्य सम्बन्ध के कारण उपचार होता है, जैसे - कोई दूसरी जाति का व्यक्ति बढ़ई का का काम करने लगे तो उसे बढ़ई कहना । आचार्य कुन्दकुन्द के निम्नलिखित निरूपण से उपचार का यह लक्षण प्रकट होता है जीवम्हि हेदुभूदे बंधेस्स दु पस्सिदूण परिणामं । जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमेत्तेण ॥ 105 ।। स. सा. अर्थात् जीव के शुभाशुभ भावों के निमित्त से कर्मबन्धरूप परिणाम होता है उसे देखकर 'जीव ने कर्म किये हैं' ऐसा उपचार-मात्र से कहा जाता है । यहाँ आचार्यश्री ने जीव के शुभाशुभभावों और पुद्गलकर्मों में जो निमित्तनैमित्तिकभाव होता है उसके आधार पर जीव पर कर्मों के कर्तृत्व का आरोप किये जाने को उपचार कहा है।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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