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________________ जैनविद्या इसमें सराग चारित्र को देवादि पदप्राप्ति का कारण होने से अनिष्ट फलवाला ही लिखा है । 71 मोक्ष की इच्छा करनेवाले मुनि के यद्यपि सरागचारित्र होता है और वह पापों को रोकता है तो भी देवादि गति का कारण होने से मोक्षार्थी को इष्ट नहीं है । वह वीतराग चारित्र पर चढ़ने के लिए ही सराग चारित्र की आराधना करता है और उसे प्राप्त कर मुक्त होता है । इसी अपेक्षा उसे कथंचित् उपादेय भी कहा है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य के गहनतम ग्रन्थों को पढ़ने के पूर्व अन्य अनुयोगों का भी स्वाध्याय करना चाहिए। ऐसा करने से ही अध्यात्मग्रन्थों का रहस्य समझ में आवेगा । श्रानन्द आयेगा | आत्मा पवित्र होगा । आशा है स्वाध्याय करनेवाले सज्जन उक्त अर्थ का अवलम्बन कर प्राचार्य कुन्दकुन्द के कथित रहस्य को अवश्य प्राप्त करेंगे ।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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