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________________ जैन विद्या के पास इस अनुभव को दूसरों तक पहुँचाने का बुद्धि और भाषा के अतिरिक्त और कोई माध्यम भी तो नहीं है । अनुभव के सामाजीकरण के लिए बुद्धि और प्रत्ययात्मक भाषा एकमात्र शरण है । जैनदर्शन में उस आध्यात्मिक अनुभव को व्यक्त करने के लिए जिस शैली का उपयोग किया गया है उसे हम 'नय' शैली कहते हैं और जिन नयों का उपयोग किया गया है उन्हें हम निश्चयनय और व्यवहारनय कहते हैं । पर यह ध्यान रहे कि अनुभव इन दोनों नयों से प्रतीत है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है- नय पक्ष से रहित जीव आत्मा का अनुभव करता हुआ दोनों नयों के कथनों को मात्र जानता है और उन्हें किंचित् मात्र भी ग्रहण नहीं करता है । इसका अभिप्राय यह है कि प्राध्यात्मिक अनुभव नयातीत है । 44 जैनदर्शन की यह नय शैली उसके अनेकान्तवाद का परिणाम है । वस्तु के स्वरूप को कहने के लिए जैन दार्शनिकों ने विभिन्न नयों का उपयोग किया है। उन सब नयों का विभाजन हम दो प्रकार से कर सकते हैं ( 1 ) तथ्यात्मक और ( 2 ) मूल्यात्मक द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नय तथा इन्हीं के भेद रूपों में नैगम, संग्रह आदि सात नय तथ्यात्मक हैं । निश्चय और व्यवहार मूल्यात्मक नय हैं और इनका उपयोग जीव की आध्यात्मिक यात्रा को व्यक्त करने के लिए ही किया जाता है। नयों का यह उपर्युक्त विभाजन ऐसे ही है जैसे जैनदर्शन सात तत्त्व और छह द्रव्यों का है । सात तत्त्वों का उद्देश्य मूल्यात्मक है जो जीव की निम्नतम अवस्था से उच्चतम अवस्था की ओर अग्रसर होने के मार्ग को अभिव्यक्त करता है। छह द्रव्यों का वर्णन तात्विक दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है । अर्थात् मनुष्य के सामने जब प्रश्न जीव के विकास का होता है तब दृष्टि मूल्यात्मक होती है और सप्त तत्वों का सहारा ग्रहण करती है । पर जब प्रश्न जगत् के अन्तिम तत्वों को समझने का होता है तो दृष्टि तथ्यात्मक होती है और द्रव्यों के रूप में प्रकट होती है । यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि तथ्य और मूल्य का विभाजन वस्तुस्थिति में नहीं होते हुए भी बुद्धि के दृष्टिकोण से अवश्य उपस्थित है । उपर्युक्त विवेचन का अभिप्राय यह है कि जैनदर्शन की निश्चय और व्यवहार शैली जीव के विकास का उद्घाटन करनेवाली मूल्यात्मक शैली है । इस शैली को परिपक्व अवस्था तक पहुँचाने का श्रेय प्राचार्य कुन्दकुन्द को है । उनके समयसार, प्रवचनसार, नियमसार आदि ग्रन्थ इस शैली का निरूपण करनेवाले अद्वितीय ग्रन्थ हैं । निश्चयनय जीव के शुद्ध स्वरूप का कथन करनेवाली दृष्टि है और व्यवहारनय उसके अशुद्ध स्वरूप का कथन करती है । इसलिए समयसार में कहा गया है कि निश्चयनय भूतार्थ है और व्यवहारनय अभूतार्थ है" । मूल्यात्मक दृष्टि से जीव का शुद्ध स्वरूप ही ग्राह्य है और जीव का अशुद्ध स्वरूप अग्राह्य है । यदि निश्चयनय प्रात्मापेक्षी है तो व्यवहारनय समाजापेक्षी है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि राग और द्वेष, शुभ और अशुभ,
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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