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________________ कुन्दकुन्द का वस्तु स्वातन्त्र्य-सिद्धान्त - राजकुमार छाबड़ा कुन्दकुन्द का मुख्य प्रतिपाद्य विषय जीव द्रव्य है । मैं ( आत्मा ) क्या हूँ ? मैं सारी क्यों बना हुआ हूँ, और मुक्त कैसे हो सकता हूँ ? कुन्दकुन्द के सामने ये मुख्य प्रश्न हैं । पर से विभक्त और स्व से एकत्व को प्राप्त प्रत्येक वस्तु लोक में सुन्दर है, इनकी बंधरूप अवस्था ही विसंवाद या विरोध का कारण होती है । यह बंधरूप अवस्था जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में पाई जाती है । पुद्गल अचेतन है । उसका स्वभाव ही मिलना और बिछुड़ना होने से पुद्गल की बंध अवस्था से कोई मूल्यमीमांसीय समस्या या आत्मा के लिए कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती लेकिन आत्मा का कर्मपुद्गलों से बंध को प्राप्त होना एक समस्या है । बंध का अर्थ यह नहीं है कि वे द्रव्य मिलकर एक हो जाते हैं या ये मिलकर एक क्रिया करते हैं । जीव और पुद्गल में बंध का अर्थ है इनका एक क्षेत्राव गाही होकर परस्पर एक-दूसरे के परिणामों को निमित्त करके परिणमन करना । इस अवस्था में जीव कर्मों के उदय होने पर अपने स्वभाव से विमुख होकर मोह, राग और द्वेष रूप विकारी भावों को प्राप्त करता है तथा इसी प्रकार जीव के विकारी भावों को निमित्त करके पुद्गल कार्मणवर्गणाएँ ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मरूप परिणत होकर जीव के साथ अवगाहन को प्राप्त हो जाती हैं। इस बंध का मूल कारण श्रात्मा का मिथ्यात्वी ( मिथ्यात्व = प्रज्ञानभाव ) होना है । यदि श्रात्मा सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर ले तो फिर वह क्रम से विकारी भावों और कर्मों के इस निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध को तोड़ता हुश्रा मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । कुन्दकुन्द के अनुसार जीव के मूल कारण एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य का, जैसे- जीव को कर्म का एवं मिथ्यात्वी होने का कर्म को जीव का,
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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