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________________ जैनविद्या 33 नयों का उल्लेख अमृतचन्द्र बहुत कम करते हैं। यदि करते भी हैं तो निश्चयव्यवहार या द्रव्याथिक-पर्यायार्थिक तक ही सीमित रहते हैं पर जयसेन निश्चयव्यवहार और द्रव्याथिक-पर्यायाथिक के भेद-प्रभेदों के विस्तार में भी जाते हैं । आचार्य जयसेन प्रत्येक गाथा के पूर्व उत्थानिका देते हैं पर आचार्य अमृतचन्द्र इस नियम से बँधे नहीं हैं। विषयवस्तु की महत्ता एवं आवश्यकतानुसार कभी वे कलशकाव्य में ही उत्तर गाथा की भूमिका बाँधते हैं, तो कहीं जयसेन के समान ही गद्य में देते हैं, तो कहीं बिना दिये ही आगे बढ़ जाते हैं । प्राचार्य जयसेन ने अपनी टीका के प्रारंभ में कहा है कि 'पंचास्तिकाय-संग्रह' संक्षिप्त रुचिव ले शिष्यों के प्रतिबोधन के लिए, 'प्रवचनसार' मध्यम रुचिवाले शिष्यों के प्रतिबोधन के लिए और 'समयसार' को विस्तृत रुचिवाले शिष्यों के प्रतिबोधन के लिए लिखा है पर अमृतचन्द्र ने इस प्रकार का कोई विभाजन नहीं किया है । जयसेन की टीकाएँ अमृतचन्द्रीय टीकाओं की पूरक हैं । जहाँ अमृतचन्द्र ने बात विस्तार से स्पष्ट कर दी है वहाँ जयसेन संक्षिप्त टीका करते हैं। और जहाँ अमृतचन्द्र संक्षिप्त टीका करते हैं वहाँ वे विस्तार करते दिखाई देते हैं । आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा प्रदत्त उदाहरण तो जयसेन की टीका में मिलते ही हैं पर अनेक अतिरिक्त उदाहरण भी उन्होंने दिये हैं। ऐसे स्थलों पर अमृतचन्द्र द्वारा दिये गये उदाहरणों को जयसेन ने संक्षेप में दिया है । जयसेन अमृतचन्द्र की टीकात्रों से पूर्णतः उपकृत जान पड़ते हैं क्योंकि वे उनके प्रतिपादन को सर्वत्र ससम्मान स्वीकार करते प्रतीत होते हैं पर जहाँ उन्हें कुछ नया कहना होता है तो वे अमृतचन्द्र की बात को आगे रखकर विनम्रता से अपनी बात भी खुलकर रखते हैं । आचार्य जयसेन की टीकाओं में कुछ गाथाएँ ऐसी भी हैं जो अमृतचन्द्रीय टीकानों में नहीं पाई जाती हैं । गाथा-संख्या की इस भिन्नता का उल्लेख (अमृतचन्द्रीय टीकाओं में अनुपलब्ध गाथाओं का स्पष्ट उल्लेख) आपने यथास्थान किया है।' अमृतचन्द्र कृत टीका में अनुपलब्ध गाथाओं की टीका जयसेन ने अत्यन्त संक्षेप में की है । कहीं-कहीं तो पदखन्डान्वय भी नहीं दिया गया, मात्र भावार्थ ही दिया है। इससे प्रतीत होता है कि ये गाथाएँ महत्त्वपूर्ण नहीं हैं एवं उनकी अनुपस्थिति से ग्रन्थ की विषयवस्तु में कुछ उल्लेखनीय अन्तर नहीं पड़ता है। अधिकारों के विभाजन एवं उनके नामकरण के बारे में भी प्राचार्य जयसेन ने अपना मौलिक चिन्तन प्रस्तुत किया है, साथ ही प्राचार्य अमृतचन्द्र का मत भी दे दिया है। इसी प्रकार सभी जगह अमृतचन्द्र कृत टीकानों की समस्त बातों को स्वीकार करते
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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