SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जनविद्या 21 यह सच है कि अध्यात्म का ज्ञान आगमपूर्वक होता है किन्तु यह भी बिल्कुल सच है कि अध्यात्म की सही समझ आने पर ही आगम का ज्ञान सम्यक् हो सकता है । आगम का वाचन कर लेने मात्र से प्रागम का ज्ञान नहीं होता । अध्यात्म में समझ उसे ही कहते हैं जो हमारी बुद्धिविवेक में समाहित हो जाए । जब तक प्राथमिक भूमिका में हमारी प्रमाणभूत शुद्ध द्रव्य की दृष्टि नहीं होती तब तक समझा, न समझा बराबर ही है । जिस प्रकार अध्यात्म को समझने के लिए आगम उस भूमिका को प्रशस्त करता है जो अध्यासी के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है, उसी प्रकार अध्यात्म के बिना वीतरागता का मार्ग प्रशस्त नहीं होता, सच्ची जिनवाणी, देव-गुरु-धर्म का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट नहीं होता। . तत्त्वज्ञान की ही यह विशेषता है कि जीव पुरुषार्थ करके मोक्षमार्ग की सम्यक् प्रवृत्ति करता है । तत्त्वज्ञान के अभाव में सम्पूर्ण विश्व के सम्बन्ध में प्राप्त की गई सब तरह की जानकारियों को भी अज्ञान कहा जाता है । जैसे कोई मनुष्य सब तरह की कलाएँ जानता हो पर तैरना नहीं जानता हो तो नदी में बाढ़ से घिर जाने पर वह उस में डूब जाएगा, नदी के पार नहीं पहुंच पायेगा, उसी प्रकार आत्मज्ञानशून्य तरह-तरह के व्रत, नियम, बाहरी चारित्र यहाँ तक कि महाव्रतों का पालन भी करे किन्तु परमार्थ-दर्शन-ज्ञान से विहीन होने के कारण उसकी सभी प्रवृत्तियाँ-क्रियाएँ संसार के लिए ही निमित्त कारण कही जायेंगी, उन से परमार्थ की साधना नहीं हो सकेगी। अतएव परमार्थ-साधन में ये निष्फल कही जायेंगी किन्तु तत्त्वज्ञान से सहित होने पर उनका महत्त्व इतना बढ़ जाएगा जितना कि बिन्दी-बिन्दी (जीरो) के पहले अंक लगा देने से उनका कई गुना मूल्य बढ़ जाता है । यथार्थ में तत्त्वज्ञान की महिमा अपरम्पार है जिसका वर्णन शब्दों में करना मुझ जैसे मन्दबुद्धि के लिए अशक्य है। प्राचार्य अमृतचन्द्र के शब्दों में रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानमावात् । तो वस्तुत्वप्रणिहितदृशा दृश्यमानौ न किंचित् । सम्यग्दृष्टि, क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्टया स्फुटन्तौ । ज्ञानज्योतिज्वलति सहजं येन पूर्णाचलाचिः॥ 217 स. सा. कलश अर्थात्-इस जगत् में ज्ञान ही अज्ञानभाव से राग-द्वेष रूप परिणमित होता है । वस्तु की एकत्व की दृष्टि से या तत्त्वदृष्टि से देखा जाये तो राग-द्वेष कोई पृथक् द्रव्य नहीं हैं । वस्तुतः अन्य द्रव्य आत्मा में राग-द्वेष उत्पन्न नहीं करा सकते क्योंकि अन्य द्रव्य में अन्य द्रव्य के गुण-पर्याय उत्पन्न नहीं हो सकते । इसीलिए प्राचार्य कुन्दकुन्द प्रेरणा देते हैं कि सम्यकदृष्टिसम्पन्न पुरुष, तत्त्व की दृष्टि से राग-द्वेष का क्षय करो । राग-द्वेष का क्षय होते ही पूर्ण व अचल प्रकाश से दैदीप्यमान ज्ञानज्योति प्रकाशित होती है । तत्त्वज्ञान की बड़ी भारी महिमा है । जिस पुरुष का विवेक जागृत हो गया है, जो सम्यग्दृष्टि है उसके
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy