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________________ जैन विद्या के लिए हैं। मानव मत पालन के लिए मनुष्य संसार के सब प्राणियों जितने नयवाद हैं उतने मत हैं। सभी मत और सम्प्रदाय मानव और सम्प्रदाय के पीछे नहीं है अतएव किसी भी मत और धर्म के को रोक-टोक नहीं होनी चाहिए। मानव अपने गुणों के कारण में श्रेष्ठ है । शरीर वंदनयोग्य नहीं होता, कुल और जाति भी वन्दनीय नहीं होते । गुणहीन श्रमण और श्रावक की कोई वंदना नहीं करता । 'दंसणपाहुड' में प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं— 14 रवि देहो बंदिज्जइ रग वि य कुलो रंग वि य जाइसंजुत्तो । को बंदs गुरणहीगो' गहु सवरणो रोय सावो होइ ॥ 27 ॥ उपर्यंकित विचार-विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रतिपादन में उन सम्पूर्ण विषयों को समाहित कर लिया है जो ग्रात्महित के लिए अत्यन्त उपादेय हैं, मोक्षमार्ग के मूलाधार हैं। आचार्यश्री के दार्शनिक विचार मूलतः जैनदर्शन के ही विचार हैं। उनके ग्रंथों में जैनदर्शन के सभी विचारों का सशक्त प्रतिपादन हुआ है । प्राचार्य कुन्दकुन्द के विचार उनकी अनुभूति के अंग हैं । उनके चिन्तन तर्क और अनुभूति का सुन्दर समन्वय है । उनको हृदयंगम किए बिना जैनाचार और विचार को सम्यक्रूप से समझा नहीं जा सकता । वस्तुतः कुन्दकुन्दाचार्य के दार्शनिक विचार जिन अध्यात्म के कल्पवृक्ष हैं । U
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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